कर्बला की कहानी | कर्बला में क्‍या हुआ था

कर्बला की कहानी दुनिया को इन्‍सानियत का एक ऐसा पैगाम है जो हमेशा इन्‍सानों को सच के खातिर लडाई के लिए प्रेरित करता रहेगा।

मोहर्रम का महीना चल रहा है। ये इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है। आमतौर पर लोग नये साल की खुशिया मनाते है। लेकिन ये महीना इतिहास के एक ऐसे सच्‍चे किस्‍से को अपने अन्‍दर समेटे हुए है। जिसको याद करके आज भी लोग अपनी आंखों के आसुओं को रोक नही पाते है।

आज से तकरीबन 1400 साल पहले इस्‍लामिक दुनिया में ऐसा क्‍या हुआ था। जिसकी वजह से दुनिया के करोडो लोग आज भी गमजदा नजर आते है। ये महीना इस्‍लाम के इतिहास का वो महीना है जिसने इस मजहब को शुरू होते ही खत्‍म होने से बचा लिया। जिसने इस्‍लाम के इन्‍सानियत वाले एंगल को दुनिया के सामने लाकर रख दिया। आज हम आपको इस्‍लाम की किताब के उस पन्‍ने से रूबरू कराने वाले है जिसको कर्बला के नाम से याद किया जाता है।  
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कर्बला की कहानी का बैकग्राउंड क्‍या है

किसी भी कहानी के क्‍लाइमेक्‍स समझने से पहले पता होना जरूरी है कि उस कहानी की शुरूआत कहा से हुई थी। इस्‍लाम की कहानी कर्बला तक कैसे पहुंची। इसका भी एक मुसलसल सिलसिला है। फिलहाल इनशार्ट में इतना समझ लीजिये कि हजरत मोहम्‍मद साहब ने इस्‍लाम धर्म की शुरूआत की। अरब के लोगो को धीरे धीरे मोहम्‍मद साहब का ऐकेश्‍वरवाद पसन्‍द आया। इस्‍लाम धर्म के मानने वालो की तादाद बढने लगी। देखते ही देखते इस्‍लाम धर्म पूरे अरब में फैलने लगा।

कर्बला की कहानी

हजरत मोहम्‍मद साहब के बाद क्‍या हुआ

हजरत मोहम्‍मद साहब ने अपनी जिन्‍दगी में ये ऐलान भी कर दिया कि वो अल्‍लाह के आखिरी पैगम्‍बर है। उनके बाद पैगम्‍बर आने के सिलसिला खत्‍म हो जायेगा। हजरत मोहम्‍मद की एक बेटी थी। जिनका नाम था फातिमा। पैगम्‍बर साहब ने अपनी बेटी की शादी अपने चचेरे भाई हजरत अली से कर दी।

हजरत अली ने पैगम्‍बर साहब के इस्‍लाम को आवाम तक पहुंचाने में बहुत ही महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यही वजह थी कि पैगम्‍बर साहब चाहते थे कि उनके बाद इस्‍लाम की सरपरस्‍ती हजरत अली को मिले। पैगम्‍बर साहब ने अपनी जिन्‍दगी में ही इस बात का ऐलान कर दिया था। मेरे बाद हजरत अली ही इस्‍लाम के लीडर होंगे। लेकिन ऐसा हो ना सका।

कर्बला की कहानी

जब 8 जून 632 ईसवी को मोहम्‍मद साहब की मृत्‍यू हुई तो कुछ लोग सत्‍ता की लालची हो गये। असल में कुछ ऐसे लोग इस्‍लाम धर्म में शामिल हो गये थे। जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ इस्‍लाम की बढती ताकत का इस्‍तेमाल करना था। इस्‍लाम के इन्‍ही लोगो को हजरत अली को पैगम्‍बर साहब का वारिस मानने से इन्‍कार कर दिया और खुद सत्‍ता की कुर्सी पर जाकर बैठ गये।

इस तरह इस्‍लाम धर्म के मानने वाले दो खेमों में बट गये। एक तो वो लोग थे जो हजरत अली को पहला खलीफा मानते थे। दूसरे वो लोग थे जो ऐसा नही मानते थे। फिलहाल ये सिलसिला यू ही चलता रहा। आखिरकार हजरत अली को इस्‍लाम में खिलाफत मिल गई। वो चौथे खलीफा बना दिये गये।
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हजरत अली के दो बेटे थे। एक का नाम थ हजरत हसन और दूसरे का नाम था हजरत हुसैन। हजरत हसन हजरत अली के बडे बेटे थे। इसलिए हजरत अली के बेटे हजरत हसन ही इस्‍लाम के खलीफा बनने वाले थे। लेकिन उस वक्‍त सीरिया के गर्वनर मुआविया ने हजरत अली के खिलाफ बगावत कर दी। इसका नतीजा ये हुआ कि मुआविया हजरत अली के बाद इस्‍लाम का खलीफा बन गया। मुआविया ने हजरत इमाम हसन को भी मरवाकर उन्‍हे अपने रास्‍ते से हटा दिया। झूठ, फरेब, लालच और धोखे से सत्‍ता हासिल करने वाले ने यहा कर्बला की बुनियाद रख दी थी।

यजीद कौन था

मुआविया का एक बेटा था। जिसका नाम था यजीद। यजीद एक करेक्‍टरलेस, शराबी और मक्‍कार किस्‍म का इन्‍सान था। वो जगंलो में रहा है इसलिए जंगली किस्‍म का इन्‍सान था। मुआविया ने खिलाफत की शर्तो को तोडते हुए यजीद को इस्‍लाम का खलीफा घोषित कर दिया। यजीद जैसा इन्‍सान इस्‍लामिक सत्‍ता की कुर्सी पर बैठ चुका था।

यजीद ने अपनी सेना की सहायता से इस्‍लामिक दुनिया को ये मानने पर मजबूर कर दिया कि वो ही उनका खलीफा है। लेकिन यजीद की ताकत और झूठ के सामने एक शख्‍स दीवार बनकर खडा हो गया। इस शख्‍स ने यजीद की बैयत मानने से इन्‍कार कर दिया। यजीद की बैयत ना मानने वाले इस शख्‍स का नाम था इमाम हुसैन।

इमाम हुसैन कौन थे

इमाम हुसैन हजरत पैगम्‍बर मोहम्‍मद साहब के नवासे और मौला अली के छोटे बेटे थे। इमाम हुसैन का जन्‍म इस्‍लामिक कैलेंडर के मुताबिक 3 शाबान को हुआ था। अग्रेजी कैलेंडर के अनुसार उनका जन्‍म 8 जनवरी 626 ईसवी को हुआ था।

इमाम हुसैन ने यजीद की खिलाफत क्‍यो स्‍वीकार नही की

यजीद छल और झूठ से खिलाफत हासिल कर चुका था। इमाम हुसैन चुकि हजरत मोहम्‍मद साहब के नवासे थे। इसलिए यजीद के लिए ये जरूरी था कि इमाम हुसैन उसकी सत्‍ता पर अपनी मोहर लगा देते। अगर इमाम हुसैन यजीद की बैयत कर लेते तो पूरा इस्‍लामिक जगत यजीद की सत्‍ता को इस्‍लाम की सत्‍ता स्‍वीकार कर लेता।

कर्बला की कहानी

यजीद को अपनी हुकूमत पर आवाम की स्‍वीकृति मिल जाती और इस्‍लाम हमेशा हमेशा के लिए शैतानी कानून बन जाता। इमाम हुसैन इस बात को जानते थे। इसलिए उन्‍होने यजीद की सत्‍ता को अपनी स्‍वीकृति देने से इन्‍कार कर दिया। यजीद ने हर तरीके से इमाम हुसैन पर उसकी सत्‍ता को स्‍वीकार करने के लिए दवाब डाला। उन्‍हे जान से मारने की धमकी भी दी। लेकिन इमाम हुसैन अपने फैसले पर अडे रहे। तमाम प्रयासो के बाद भी जब यजीद को ये समझ में आ गया कि इमाम हुसैन उसकी बात नही मानेगे तो उसने इमाम हुसैन को खत्‍म करना का प्‍लान बनाना शुरू कर दिया।
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जब इमाम हुसैन को ये पता चला कि यजीद उन्‍हे खत्‍म करना चाहता है तो उन्‍होने 4 मई 680 ईसवी को मदीना छोडकर मक्‍का की तरफ जाने का फैसला कर लिया। इमाम हुसैन काबे की तरफ चल दिये।

यजीद को जब इमाम हुसैन के काबे की तरफ जाने की बात पता चली तो उसने काबे के तरफ अपनी फौज भेज दी। वो इमाम हुसैन को काबे के अन्‍दर ही खत्‍म करना चाह रहा था। जब इमाम को इस बात का पता चला तो वो इराक के एक शहर कर्बला की तरफ चल दिये। वो ये चाहते थे कि काबे के आस पास खून खराबा ना हो। यहा से कर्बला की कहानी की शुरूआत होती है।

कर्बला की जंग इन हिन्‍दी स्‍टोरी | इमाम हुसैन कर्बला स्‍टोरी इन हिन्‍दी

इमाम हुसैन 2 मोहर्रम 61 हिजरी को कर्बला पहुंच गये। अग्रेजी कलेन्‍डर के अनुसार ये अक्‍टूबर का महीना सन 680 ईसवी थी। इमाम हुसैन यहा अपने पूरे परिवार के साथ आये थे। उनके साथ उनके 72 साथ, महिलायें और बच्‍चे भी थे। इमाम हुसैन के कर्बला जाने की एक वजह ये भी थी कि इराक और कूफे के लोग उन्‍हे खत लिखकर बुला रहे थे। ताकि इमाम हुसैन उन्‍हे यजीद के जुल्‍मों सितम से बचा सके। फिलहाल इमाम हुसैन कर्बला पहुंचे।

उन्‍होने कर्बला पहुंचकर कुछ जमीन खरीदी और वहा अपने खेमे लगा लिये। इमाम हुसैन को लगता था कि कर्बला में उन्‍हे लोगो का सर्मथन मिलेगा लेकिन ऐसा नही हुआ। कूफे और इराक के वो लोग जो उन्‍हे खत लिखते थे। यजीद के डर से उनसे मिलने नही आये। यहां से कर्बला की जंग की शुरूआत हुई।

यहा कर्बला की जंग कहना सही नही रहेगा। जंग तब होती है जब दोनो तरफ से जंग की ख्‍वाहिश हो। इमाम हुसैन अपने सिर्फ 72 साथिओं के साथ कर्बला आये थे। वो सिर्फ अपने परिवार को बचाना चाहते थे। उनका मकसद जंग करना नही था। लेकिन यजीद ने अपनी 1 लाख से ज्‍यादा की सेना को कर्बला की तरफ रवाना कर दिया। यजीद का मकसद साफ था वो इमाम हुसैन को जिन्‍दगी का डर दिखाकर उनसे बैयत लेना चाहता था।

यजीद की सेना ने क्रूरता की हदे पार कर दी

पुराने जमाने में जो जंगे हुआ करती थी। उनके कुछ नियम कानून हुआ करते थे। मसलन बच्‍चों और महिलाओं पर हमला नही किया जायेगा। किसी भी हालत में पानी बन्‍द नही किया जायेगा। निहत्‍थों पर पर वार नही किया जायेगा। ये सब जंग के उसूल हुआ करते थे। लेकिन कर्बला की जंग में यजीद की सेना ने इन सभी नियम कानून को तोडकर क्रूरता और हैवानियत की ऐसी दास्‍ता लिखी जो आज भी इन्‍सानी दिमाग में सिहरन पैदा कर देती है।

यजीद ने पहले तो इमाम हुसैन को सेना का डर दिखाया। इमाम हुसैन ने यजीद से यहा तक कहा कि वो अपने परिवार को लेकर उससे और उसकी सत्‍ता से कही दूर चले जायेगे। लेकिन यजीद नही माना । उसे तो हर हाल में इमाम हुसैन से अपनी बैयत लेनी थी।

अपनी बात ना बनते हुए देखकर यजीद ने इमाम हुसैन और उनके साथिओं पर 6 मोहर्रम को पानी बन्‍द कर दिया। इमाम हुसैन के कुनबे के छोटे छोटे बच्‍चे प्‍यास से तडपने लगे लेकिन यजीद को उनपर कोई तरस नही आया। इमाम हुसैन ने यजीद की सेना से अपने बच्‍चों को पानी देने के लिए मिन्‍नते तक की। लेकिन यजीदी सेना तो जैसे दिल पर पत्‍थर रखकर जंग के मैदान में उतरी थी। इमाम हुसैन के खेमों के बच्‍चों तक को पानी नही मिला।

यजीद की सेना कर्बला में कैसी हैवानियत पर उतर आई थी। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब इमाम हुसैन का 6 माह का छोटा सा बच्‍चा अली असगर प्‍यास की शिद्दत की वजह से अपने छोटे से झूले में तडपने लगा। तब इमाम हुसैन अपने 6 माह के बेटे अली असगर को यजीद की सेना के सामने ले गये। उन्‍होने यजीद की सेना से कहा कि तुम्‍हारी लडाई मुझसे है। इस 6 महीने के बच्‍चे ने तुम्‍हारा क्‍या बिगाडा है। ये बच्‍चा प्‍यास से तडप रहा है। कम से कम इस बच्‍चों को तो पानी पिला दो।

इमाम हुसैन की ये बात सुनकर यजीद की सेना में खलबली मच गई। सेना के कुछ इस बच्‍चों को देखकर मूंह छिपाकर रोने लगे। लेकिन यजीदी फौज का एक कमाडर जिसका नाम हुरमुला था। उसने तीन नोक का तीर इस छोटे से बच्‍चे की तरफ छोड दिया।

ये तीर सीधा अली असगर के गले पर जाकर लगा। इमाम हुसैन का ये छोटा सा बच्‍चा वही शहीद हो गया। कर्बला के मैदान में ये क्रूरता की इन्‍तेहा थी

जब इमाम हुसैन ने चिरागो को बुझा दिया

इमाम हुसैन की जंग टालने की तमाम कोशिशे के बाद जब ये तय हो गया कि अब जंग करनी ही पडेगी। तब उन्‍होने जंग से एक दिन पहले यानि कि 9 मोर्हरम को अपनी सभी 72 सिपाहियों को एक खेमे में जमा कर खेमे के अन्‍दर चल रहे चिरागो को बुझा दिया। रात के अधेरे में चिरागो को बुझाकर इमाम हुसैन ने अपने साथियों से कहा कि यजीद मुझे मारना चाहता है। कल मेरी मौत निश्चित है। इस जंग में जो भी मेरा साथ देगा। वो भी मारा जायेगा। मै नही चाहता कि मेरी वजह से किसी की मौत हो। तुम लोगो में से जो भी ये जंग छोडकर जाना चाहता था। वो जा सकता है। मुझे उससे कोई शिकायत नही होगी। यहा से जाने वालो का यजीद की फौज भी कुछ नही करेगी। किसी के कदम मुझे देखकर नही रूके इसलिए मैने अंधेरा भी कर दिया है। आप लोग अपने फैसला लेने के लिए पूरी तरह से आजाद है।

ऐसा बोलकर इमाम हुसैन ने कुछ देर खेमे को अधेरे में ही रखा। कुछ देर के बाद जब चिराग चले तो 72 के 72 सिपाही इमाम हुसैन के साथ ही खडे। कोई अपनी जगह से एक कदम भी नही हिला था। त्‍याग, मोहब्‍बत और भरोसे की ऐसी मिसाल भी कर्बला से पहले दुनिया ने नही देखी थी।

10 मोर्हरम को हुई कर्बला की जंग

10 मोर्हरम 61 हिजरी को कर्बला की जंग हुई। इमाम हुसैन के प्‍यासे 72 साथियों ने 1 लाख से ज्‍यादा यजीदी सिपाहियों का डटकर मुकाबला किया। कर्बला के मैदान में खून का दरिया बह निकला। इमाम हुसैन के प्‍यासे सिपाही एक के बाद एक अपनी कुर्बानी देते रहे। इमाम हुसैन के बेटे कासिम को यजीद की सेना के घोडो की टापो के नीचे पामाल कर दिया। इमाम हुसैन के भाई हजरम अब्‍बास के बाजुओ को कलम कर दिया गया। इमाम हुसैन के 72 साथी जब तक लडे अपनी पूरी हिम्‍मत से लडे। यजीदी सेना के हजारो सिपाही मारे गये।

कर्बला की जंग में इमाम हुसैन कैसे शहीद हुये

कर्बला के मैदान में जब एक के बाद एक ईमाम हुसैन के सारे सिपाही शहीद हो गये। तब इमाम हुसैन तन्‍हा कर्बला के मैदान में खडे थे। जिन्‍दा लोगो में सिर्फ औरते, बच्‍चो के अलावा उनका एक बेटा ही बचा था। इमाम हुसैन अपनी तलवार जुल्फिकार को लेकर मरते दम तक यजीदी सेना से लडते रहे।

यजीदी सेना चारो तरफ इमाम हुसैन पर हमले करती रही। इमाम हुसैन अपने कटे हुए शरीर से लडाई लडते रहे। जब इमाम हुसैन लडते लडते थक गये तो शिम्र नाम के एक यजीदी ने कुन्‍द धार की तलवार से इमाम हुसैन के सर को तन से जुदा कर 10 अक्‍टूबर 680 ईसवी को  शहीद कर दिया।
तो ये थी कर्बला की कहानी जिसे सुनकर आज भी आंखों में आसू आ जाते है।

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