Parle G success story in hindi | पारले जी की कहानी

Parle G success story in hindi,आज हम आपको पारले जी की कहानी सुनाने वाले है।

अगर आप चाय के शौकीन है और पारले जी बिस्किट के बारे में नही जानते हो। ऐसा होने की सभांवना बहुत कम है। ये ब्रान्‍ड तब से चाय का साथी बना हुआ है जब भारत आजाद भी नही हुआ था। पारले बिस्किट के साथ लोगो का रिश्‍ता कुछ ऐसा है कि इसको देखते ही लोगो की अपने जीवन से जुडी हुई काफी यादें ताजा होने लगती है।  आपको जानकर हैरानी होगी कि ये बिस्किट देश का ऐसा पहला बिस्किट है जो आम भारतीयों के लिए बना था।  पारले जी भारत का एकमात्र ऐसा बिस्किट है जो तीन पीढियों से लगातार लोगो की पहली पसन्‍द बना हुआ है। पारले जी शुरूआत कैसे हुई। ये अब तक कैसे लोगो में अपनी मौजूदगी दर्ज कराये हुए है। आज हम आपको पारले जी के बनने से लेकर अब तक की कहानी को बताने वाले है।

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पारले जी और स्‍वदेशी आंदोलन

पारले जी कितना पुराना बिस्किट है। इस बात का अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है। कि इसके तार महात्‍मा गांधी के स्‍वदेशी आदोंलन से जुडेे हुए है। एक जमाना था जब विदेशी चीजे ही भारतीय मार्किट में बेची जाती थी। उस वक्‍त अग्रेज कैंडी  बेचा करते थे। ये काफी महगी था। सिर्फ अमीर लोग ही इस खरीद सकते थे। ये बात उस वक्‍त के एक व्‍यापारी  मोहनलाल दयाल को बिल्‍कुल पसन्‍द नही थी। स्‍वदेशी आदोंलन से काफी प्रभावित मोहनलाल दयाल इस भेदभाव को खत्‍म करना चाहते थे। उन्‍होने सोच लिया कि वो एक ऐसी कैंडी बनायेंगे जो भारत में ही बनेगी और जिसे भारत के लोग  आसानी से खरीद सकेगे।

अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए वो जर्मनी चले गये। जर्मनी जाकर उन्‍होने कैंडी बनाना सीखा। जब उन्‍होने कैंडी बनाना सीख लिया। तो जर्मनी से ही उन्‍होने 60000 रूपये में कैंंडी बनाने की मशीन खरीद ली। साल था 1929। मोहनलाल ने भारत आकर नया व्‍यापार करना शुरू कर दिया। वो पहले रेशम के व्‍यापारी थे। अपने नये व्‍यापार को शुरू करने के लिए उन्‍होने मुबई के पास ईलाा-पार्ला में एक पुरानी फैक्‍ट्री खरीद ली ।

12 कर्मचारियो के साथ की पारले की शुरूआत

मोहनलाल के पास शुरुआत में सिर्फ 12 कर्मचारी ही थे और यह सब उनके परिवार वाले ही थे. उन सब ने मिलकर दिन-रात एक किए और पुरानी सी उस फैक्ट्री को एक नया रूप दिया। उनके साथ काम करने वाले हर एक इन्‍सान ने जमकर मेहनत की। जब कम्‍पनी का नाम रखने का समय आया तो किसी को समझ नही आया कि इस कम्‍पनी का नाम क्‍या रखा जाये। जब कोई नाम समझ नही आया तो मोहनलाल ने अपनी कम्‍पनी का नाम उस जगह के नाम पर ही रख लिया जहां उन्‍होने अपनी कम्‍पनी खोली थी। ये कम्‍पनी पार्ला में खोली गई थी इसलिए उन्‍होने अपनी कम्‍पनी का नाम पारले रख लिया। पारले ने सबसे पहले एक ऑरेंज कैंडी बनाई थी। इस कैंडी को खास तौर पर भारतीय के लिए बनाया गया था। पारले नाम की इस कैंडी को काफी पसन्‍द किया गया। कुछ ही समय में ये कैंडी काफी ज्‍यादा फेमस हो गई। एक आम इन्‍सान से लेकर सेना के जवानों तक। इस कैंडी को समाज के हर वर्ग ने काफी ज्‍यादा पसन्‍द किया। इसके बाद पारले ने और भी कैंडिया बनाई।

ऐसे हुई पारले बिस्‍किट की शुरूआत

मोहनलाल ने अपना स्‍वदेशी व्‍यापार तो शुरू कर दिया था। मगर उन्‍हे अभी कई और चीजे लानी बाकी थी। भारत में रहने वाले अंग्रेज उस वक्‍त अपनी चाय के साथ अजीब तरह का बिस्किट खाया करते थे। ये बिस्किट भी अग्रेजों की कैंडी की तरह काफी ज्‍यादा मंहगा था। अब उन्‍हे भारतीय के लिए बिस्किट बनाना था। यही सोचकर उन्‍होने 1939 में उन्होंने शुरुआत की ‘पार्ले-ग्लूको’ की. ‘पार्ले-ग्लूको’ गेहूँ से बना बिस्किट था। उन्‍होने इसके दाम भी काफी कम रखे थे। मोहनलाल ने जिस साल इस बि‍स्किट की शुरूआत की थी। उस समय दूसरा विश्‍व युद्ध चल रहा था।  इतिहास में ये बात भी लिखी हुई है कि भारत की तरफ से जो सैनिक युद्ध में लडने के लिए गये थे वो अपने साथ पारले ग्‍लूकोज के बिस्‍किट साथ लेकर गये थे। उस वक्‍त इस बिस्किट की माग इतनी ज्‍यादा बढ गई थी कि इस बिस्किट के सामने अग्रेजों के सभी ब्रांड फीके पड गये थे।

ज्‍यादा मांग की वजह से बन्‍द करना पडा था प्रोडक्‍शन

दूसरे विश्‍वयुद्ध में इस बिस्किट की मांग इतनी ज्‍यादा बढ गई थी कि कुछ समय के लिए कम्‍पनी को अपना प्रोडक्‍शन बन्‍द करना पड गया था। उस वक्‍त गेहू की किल्‍लत थी और कम्‍पनी का सारा गेहू खत्‍म हो गया था। पारले के सामने संकट ये था कि उन्‍हे उचित गेहू नही मिल पा रहा था। पारले के सामने ये परेशानी देश की आजादी के बाद भी बनी रही। उस वक्‍त देश के लोगो के पास खाने तक के लिए गेहू की कमी पड रही थी। पारले का प्रोडक्‍शन रूकने की वजह से लोगो को पार्ले-ग्‍लूको की कमी सताने लगी। कुछ समय के बाद पारले की ये दिक्‍कत दूर हो गई और लोगो को उनका पसदीदा बिस्‍कुट मिलने लगा। उस वक्‍त तक तमाम ऐसे ब्राड आ गये थे जो पारले ग्‍लेकोज की कापी किया क‍रते थे। इसी के चलते 1982 को पार्ले ग्‍लूकोज को अपना नाम पारले जी करना पडा।

शक्तिमान की पसन्‍द बना पारले जी

पारले जी की पापुलारिटी लगातार बढती गई। बाद में भारत में टीवी ऐड की शुरूआत हुई। तो पारले जी ने भी टीवी के लिए ऐड करने शुरू कर दिये। पारले ने सबसे पहले 1982 में अपना पहला टीवी ऐड निकाला। टीवी पर पारले जी का ऐड आते इसकी सेल्‍स आसमानों को छूने लगी। 1991 तक आते आते पारले जी टीवी की दुनिया का राजा बन चुका था। आकडो पर यकीन किया जाये तो 1991 में बिस्किट मार्केट का 70 फीसदी से ज्‍यादा हिस्‍सा पारले जी के पास था। मार्किट में उस वक्‍त तक बहुत सारे बिस्किट आ गये थे लेकिन पारले जी अपने और बाकियों के बीच एक लम्‍बी रेखा खीच दी थी।

साल था 1997। ये वो समय था जब टीवी को अपना पहला सुपरहीरों मिला। भारत में सुपरहीरों को आना था। उस वक्‍त ताकत का प्रतीक था पारले जी। इसीलिए सुपरहीरों को भी पारले जी को खाते हुए टीवी पर आना पडा। सुपरहीरों शक्तिमान को साथ मिला पारले जी का। पारले जी और शक्तिमान ने बाद में टीवी पर कई कृतिमान स्‍थापित किये।

तो ये थी पारले जी की सक्‍केस स्‍टोरी (Parle G success story in hindi) हमे उम्‍मीद है कि आपको हमारी ये कहानी जरूर पसन्‍द आई होगी। 

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3 thoughts on “Parle G success story in hindi | पारले जी की कहानी”

  1. Your article made me suddenly realize that I am writing a thesis on gate.io. After reading your article, I have a different way of thinking, thank you. However, I still have some doubts, can you help me? Thanks.

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