Faiz ahmad faiz ki kahani | फैज अहमद फैज की कहानी

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Faiz ahmad faiz ki kahaniआज हम आपको फैज अहमद फैज की कहानी सुनाने वाले है।

 मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने

ज़बाँ पे मोहर लगी है तो क्या कि रख दी है
हर एक हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में ज़बाँ मैंने

हुकूमत का काम आवाम की समस्‍याओं का समाधान करना होता है। लेकिन जब हुकुमत अपनी ही आवाम से मनमानी करने लगती है तो बगावत की आवाजे उठने लगती है। तब हुकूमत को आवाम की ताकत का अंदाजा होता है। जब किसी दौर की हुकूमत मनमाने तरीके से आवाम को हकों को ताक पर रखते हुए हिटलरशाही पर उतर आती है तो उस दौर की आवाम हुकूमत तक अपनी आवाज पहुचांने के लिए उन कविताओं, शायरियों और नारों का सहारा लेती है जो उस दौर की सही नक्‍काशी करती है।

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आज हम आपको जिस शायर के बारे में बताने वाले है वो हर दौर की उन आवाजों की रहनुमाई कर रहा है जो सत्‍ता के खिलाफ अपने अधिकारो के लिए उठती रहती है। उसकी शायरी हिन्‍दुस्‍तान पाकिस्‍तान से लेकर हर उन देशों में गुजती रहती है जहां भी सत्‍ता के खिलाफ आवाम का सघर्ष होता है। इंकलाब और इस शायर का बहुत पुराना नाता है। हम बात कर रहे है फैज अहमद फैज की। आज हम आपको इसी शायर के बारे मे विस्‍तार से बताने वाले है।

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इंकलाबी शायरी के बहुत बडे फनकार फैज अहमद फैज का जन्‍म 13 फरवरी 1911 में लाहौर के पास पंजाब के नरोवल जिले के कालासदर में एक जाट परिवार में हुआ था। वैसे तो उनका परिवार काफी पढा लिखा था लेकिन इसके साथ ही उनके मा-बाप बहुत ज्‍यादा धार्मिक स्‍वभाव के थे। ये उन दिनों की बात है जब हिन्‍दुस्‍तान आजादी के लिए अग्रेजों से सघर्ष कर रहा था। ऐसे माहौल में पैदा होने वाले फैज अहमद फैज के अन्‍दर इंकलाबी सोच उनके बचपन में ही पैदा हो गई थी।

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फैज अहमद फैज पढने में काफी ज्‍यादा होशियार थे। उन्‍होने अपने बचपन में ही कई बडे इतिहासकारो को पढ डाला था। अपने इसी पढाकू स्‍वभाव के चलते उन्‍होने 1936 में पंजाब प्रान्‍त में प्रगतिशील लेखक की नीव डाली। एक जमाने में वो शिक्षक भी रहे। उनका सपना इग्लैंड में जाकर अग्रेजी साहित्‍य में पीएचडी करने का था। लेकिन पैसो की कमी के चलते वो ऐसा नही कर पाये। बाद में वो सेना में भर्ती हो गये। सेना में भी वो ज्‍यादा दिनों तक नही टिक पाये फैज अहमद फैज साम्यवादी विचारधारा के थे और पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के अहम स्तम्भ थे. 1936 में उन्होंने अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में प्रगतिशील लेखक संगठन की नींव डाली थी. सूफी रिवायतों से प्रभावित फैज कुछ सालों तक शिक्षक भी रहे. बाद में वो सेना में भर्ती हो गए. हालांकि सेना में भी वो ज्यादा दिन तक बने नहीं रह पाए और सन् 1947 में उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से इस्तीफा दे दिया. 1947 में उन्‍होने सेना से इस्‍तीफा दे दिया।

फैज अहमद फैज को वामपंथ अच्‍छा लगता था

यू तो फैज का जन्‍म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था लेकिन वो इस्‍लाम से दूर ही रहते थे। दरअसल उनका झुकाव वामपंथ की तरफ शुरू से ही था। अपने कॉलेज के दिनों में उन्‍होने कई वामपंथी लेखको को पढ डाला था। कॉलेज के दिनों में ही वह एम एन रॉय और मुजफ्फर अहमद जैसे नेताओं से प्रभावित होकर कम्यूनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। फैज अहमद फैज के ऊपर आजादी का काफी ज्‍यादा असर पडा था। आजादी के वक्‍त वो लोगो से कहा करते थे कि अपने अपने दिलों को पाकिजा करो ताकि तुम अपने देश की रक्षा कर सको।

जब भारत का बटवारा हो गया तो वो पाकिस्‍तान चले गये। पाकिस्‍तान में उन्‍होने 1947 में कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी ऑफ पाकिस्‍तान की स्‍थापना की। ऐसा करके वो एक नये मुल्‍क की सरकार के निशाने पर आ गये। पाक की सरकार को उनकी इंकलाब से भरी हुई शायरी पसन्‍द नही आ रही है। अपने शायरी की वजह से कई बार उन्‍होने जेल भी जाना पडा। नौबत यहा तक आ गई कि पाक सरकार ने उन्‍होने पाकिस्‍तान से निकल जाने पर मजबूर कर दिया।

 जेल में लिखते रहे इंकलाब 

पाकिस्तान के बड़े अखबार पाकिस्तान टाइम्स के संपादक के तौर पर उन्होंने समाजवाद और वामपंथ का खूब प्रचार-प्रसार किया। 1951 में उन्हें तत्कालीन मेजर जनरल अकबर खान की तख्ता पलट की कोशिशों में शामिल रहने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। फैज़ कहां चुप बैठने वाले थे। उन्होंने जेल में भी अपनी इंकलाबी नज्मों और शायरी का सफर जारी रखा। प्रशासन को यह खटका तो जेल में रहने के दौरान लेखनी पर ही पाबंदी लगवा दी। 4 साल बाद जब फैज़ अहमद फैज़ जेल से छूटे तो उन्होंने अपनी उसी लेखनी को रफ्तार दी और उसमें पीड़ित वर्ग की आवाज को भी शामिल कर लिया। साल 1955 वह लंदन चले गए, लेकिन 1958 में फिर पाकिस्तान आ गए। हालांकि, उन्हें यहां दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर वामपंथी विचारों और रूसी सरकार के एजेंडे का प्रचार करने का आरोप लगा था लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो ने उनकी मदद की और वो 1960 में मॉस्को चले गए। वहां से वह फैज फिर से लंदन चले गए।

बांग्लादेशियों के नरसंहार का किया विरोध

1964 में वह पाकिस्तान वापस आए और कराची में बस गए। 1965 में जुल्फीकार अली भुट्टो जब अयूब खान सरकार में विदेश मंत्री बने तो उन्होंने फैज को सूचना प्रसारण मंत्रालय में बड़ी जिम्मेदारी दी। 1971 में जब पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हो गया तो फैज देशभक्ति गीतों के जरिए तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान में पाकिस्तानी नरसंहार का विरोध किया। 1972 में जुल्फीकार अली भुट्टो प्रधानमंत्री बने तो फैज को सरकार में शामिल कर लिया।

1979 में लिखा था– हम देखेंगे
1977 में आर्मी जनरल जिया उल हक ने भुट्टो सरकार का तख्तापलट किया तो फैज ने इसका मुखर विरोध किया। उन्होंने 1979 में जिया उल हक के सैनिक शासन के विरोध में यह नज्म लिखी थी। भुट्टो को फांसी दिए जाने की खबर से आहत होकर उन्होंने उसी वर्ष लेबनान में शरण ले ली लेकिन 1982 में लेबनान में युद्ध छिड़ने के कारण पाकिस्तान लौटे। 1984 में उनका लाहौर में निधन हो गया। निधन से ठीक पहले उन्हें बताया गया था कि उन्हें साहित्य के नोबेल प्राइज के लिए नॉमिनेट किया गया।
जब इकबाल बानो ने गाया हम देखेंगे
फैज अहमद फैज की जिस नज्म ‘हम देखेंगे’ पर विवाद हो रहा है, दरअसल उसे जिया की तानाशाही के खिलाफ लिखा गया था। हकीकत तो यह थी कि फैज की क्रांतिकारी नज्मों और कविताओं से जिया को डर लगने लगा था। उसने फैज की नज्मों पर पाबंदी लगा रखी थी, लेकिन पाकिस्तान की महान गायिका इकबाल बानो ने भी जिया की पाबंदियों की धज्जियां उड़ाने का फैसला कर लिया था। 13 फरवरी 1986 को लाहौर के अलहमरा आर्ट कौंसिल में एक प्रोग्राम का आयोजन किया गया। उस प्रोग्राम में इकबाल बानो ने ‘हम देखेंगे’ नज्म को गाया। किसी ने यह उम्मीद नहीं की थी कि जिया की पाबंदी के बगैर बड़ी संख्या में लोग इकबाल बानो को सुनने उमड़ पड़ेंगे।
इकबाल बानो ने फैज की नज्म गाना शुरू किया…
हम देखेंगे…
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है

जब जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो

जब इकबाल बानो ‘सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे’ वाली लाइन गाने लगीं तो तालियों और नारों की आवाज थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कार्यक्रम की अपार सफलता से घबराई सैन्य तानाशाह जिया की हुकूमत ने आयोजकों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। आयोजकों के घर पर छापे मारे गए और इकबाल बानो के नज्मों की रेकॉर्डिंग को जब्त करके तबाह कर दिया गया।
तो ये है Faiz ahmad faiz ki kahani, हमे आशा है कि आपको हमारा ये लेख पसनद आया होगा। 

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