haryana politics: हरियाणा के पहले मुख्‍यमंत्री बनने की कहानी

haryana politics, अनाज मंडी में एक मुख्यमंत्री ने  जनसभा में बोलते हुए कहा मैं अब इन चौधरीयों की नही चलने दूंगा। मैं इनके डोगे खूंटी पर टंगवा कर रहूंगा। मगर मुख्यमंत्री को नहीं पता था जल्द उनकी सरकार गिरने वाली है। इस दिन के बाद हर  रोज उनके विधायक पाला बदल रहे थे।  एक मुख्यमंत्री जिसके इतने विधायक भागे की उसे भ्रम होने  लगा कहीं उसकी पत्नी भी पाला ना बदल ले। एक मुख्यमंत्री जिसकी सरकार बहुमत में होने के बाद भी 10 दिन में गिर गई? 

आज मैं आपको कहानी सुनाने जा रहा हु हरियाणा के पहले चुनाव की जिसके बाद हरियाणा में हर एक विधायक की कीमत 40000 हो गई। 

1 नवंबर 1966 हरियाणा  भारत का 17 वा राज्य बना 62 सीटों वाले हरियाणा प्रदेश में अंतरिम सरकार बनी कांग्रेस के पास बहुमत होने के चलते कांग्रेस ने सरकार बनाई। हरियाणा के पहले मुख्यमंत्री बने  संयुक्त पंजाब की प्रताप सिंह कैरों की सरकार में मंत्री रहे कांग्रेस के मजदूर प्रकोष्ठ के अध्यक्ष पंडित पंडित भगवत दयाल शर्मा। मगर ज्यादा दिनों तक तक पंडित जी इस पद पर नहीं रह सके और फरवरी 1967 में देश में चुनाव की घोषणा हो गई। यही वो चुनाव जिसमे पहली बार कांग्रेस पार्टी के आधिपत्य को चुनौती मिली आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस पार्टी को बहुमत पाने के लिए मशकत करनी पड़ी। नेहरू के जाने के बाद अब कांग्रेस में फुट पड़ चुकी थी। अब उनकी जगह उनकी तेज तर्रार बेटी इंद्रा ने ले थी।

520 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस पार्टी 289 सीटें ही जीत सकी कांग्रेस पार्टी का ये आजादी के बाद सबसे खराब प्रदर्शन रहा। हरियाणा में पहली बार विधानसभा चुनाव हो रहे थे हरियाणा की जनता ने चुनाव में बड़े चाव के साथ हिस्सा लिया  पिछली बार के मुकाबले हरियाणा के मतदान में 10 फीसदी का इजाफा हुआ। पहली विधान सभा में 81 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए  कांग्रेस पार्टी उम्मीद से थोड़ा कम और बहुमत से थोड़ा ज्यादा  48 सीटों जीत दर्ज कर पाई। जनसंघ के 12  विधायक विधानसभा पहुंचे। इस बार 16 आजाद उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे थे। 

कांग्रेस ने एक बार फिर पंडित जी  पर दांव खेला। पंडित भगवद दयाल शर्मा ने 10 मार्च 1967 11 मंत्रियों के साथ एक बार फिर हरियाणा के दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में की सपथ ली। मगर इस बार सिर मुंडाते ही ओले पड़ने वाली कहावत सच साबित हुई। 

पंडित जी के मुख्यमंत्री बनते ही जाट नेताओं ने राव वीरेंद्र सिंह के साथ मिलकर उनकी सरकार के विरुद्ध गोल बंदी शुरु कर दी।    इस नाटक को रचने वाले सूत्रधार थे हरियाणा के कद्दावर नेता चौधरी देवीलाल। हरियाणा में जाट जाती संख्या के आधार पर सबसे बड़ी आबादी है 

लगातार दूसरी बार कांग्रेस पार्टी के द्वारा गैर जाट मुख्यमंत्री बनाए जाने पर जाटों में खासी नाराजगी थी। रही सही कसर पंडित भगवद दयाल शर्मा ने पूरी कर दी।  

जब उन्होंने रोहतक की जनसभा में बोलते हुए जाटों की ओर इशारा करते हुए कहा अब मैं इन चौधरीयों की नहीं चलने दूंगा। इनका डोगा खूंटी पर टंगवा कर रहूंगा। मगर पंडित जी को नहीं पता था अबकी बार उनका ही डोगा खूंटी पर टंगने वाला था। शपथ ग्रहण के एक सप्ताह बाद 17 मार्च 1967 को पंडित जी की सरकार को झटका लगा।              

मुख्यमंत्री बन जाने के    विधानसभा अध्यक्ष के चुनने की बारी  ।कांग्रेस पार्टी और पंडित भगवद दयाल शर्मा के प्रत्याशी के तौर दया किशन चुनाव मैदान में थे। वहीं नए बने संयुक्त मोर्चा की तरफ से राव तुला राम के वंशज दक्षिणी हरियाणा अहीर बैल्ट के कद्दावर नेता राव वीरेंद्र सिंह चुनाव लड़ रहे थे। विधान सभा में असली खेला तब हुआ जब बहुमत होने बौजुद कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी दया किशन, रावतुला से तीन वोटों से हार गए। दया किशन के खाते में 37 विधायकों ने वोट किया, वहीं संयुक्त मोर्चे के प्रत्याशी को 40 विधायकों के मत पाकर विधानसभा अध्यक्ष बन गए। पंडित जी को अब आभास होने लगा था अब उनकी सरकार गिरने वाली है। विधानसभा अध्यक्ष पद के चुनाव में कांग्रेस के 12 विधायक बागी तेवर दिखा चुके थे। 

पंडित जी विधायकों को मानने का जिम्मा और मंत्रिमंडल की जिम्मेदारी अपने करीबी हरद्वारी लाल को सौंप कर आला कमान से विचार विमर्श के लिए दिल्ली की ओर निकल गए। मगर पीछे से देवीलाल ने हरद्वारी लाल को मंत्री पद का लालच देकर फुसला लिया। हरद्वारी लाल  तीन मंत्रियों के साथ अगले दिन ही इस्तीफा देकर संयुक्त मोर्चे की नाव में सवार हो गए  बाद में उन्हें शिक्षा मंत्री बनाया गया।  इस नए गठजोड़ को यूनाइटेड फ्रंट नाम दिया गया। राव वीरेंद्र सिंह संयुक्त विधायक दल के नेता चुने गए। जब पंडित भगवद दयाल शर्मा दिल्ली से लोटे तब तक कई कांग्रेसी विधायक पाला बदल चुके थे। जब पंडित जी विधायकों की स्थिति को जांचने के लिए विधायक आवास पहुंचे तो उनके एक सहियोगी ने कहा में अभी अभी रेडियो पर सुनकर आ रहा हूं पंडित तूही राम भी चले गए। 

विधायकों के दल बदल से तंग आए पंडित जी अपने सहियोगी से वंज्ञात्मक अंदाज में मुस्कराते हुए कहा जरा घर पर फोन लगाओ पडंताईन जी घर पर है या उन्होंने भी पाला बदल लिया।  

खैर पडंताईन जी तो घर पर ही थी मगर पंडित जी की सरकार गिर चुकी थी। 22 मार्च को पंडित भगवत दयाल शर्मा ने राज्यपाल बी. एन चक्रवर्ती  को अपना इस्तीफा भेज दिया। 23 मार्च 1967 को राव वीरेंद्र सिंह ने  हरियाणा के दूसरे मुख्यमंत्री और पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री के रूप में सपथ ली। राव साहब की सरकार को जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, कांग्रेस के बागियों समेत 16 निर्दलियों का समर्थन प्राप्त था।  

राव वीरेंद्र सिंह के मंत्रिमंडल में 15 विधायकों जगह मिली और बचे हुए विधायकों को मलाईदार पद बांटे गए। ये आज तक का हरियाणा के इतिहास  का सबसे बड़ा मंत्री मंडल था। मगर राव साहब की सरकार भी ज्यादा दिनों तक ना चल सकी। ये सत्य है की सत्ता के लालची लोग तब तक ही साथ रह सकते है जब तक उनका साझा दुश्मन खत्म न हो जाय। देवीलाल लाल से आदावत के चलते 8 महीने विधायकों के दल बदल के खेल से तंग आकर राव वीरेंद्र सिंह को 20 नवंबर 1967 को इस्तीफा देना पड़ा। ओर फिर  हरियाणा में लगा राष्ट्रपति शासन।

अब अगले अध्याय में  कहानी एक युवा वकील के  मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री बनने की। कहानी उस मुख्यमंत्री की जो 12 अकबर रोड पर  के नेताओ की जी हजूरी करते करते मुख्यमंत्री बन गया। कहानी उस मुख्यमंत्री की जो हरियाणा का विकाश पुरुष कहलाया और फिर तानाशाह हो गया।  कहानी उस मुख्यमंत्री की जिसने बीच रास्ते देवी लाल को अपनी कार से उतार दिया। हरियाणा की राजनीति के दिलचस्‍ब किस्‍से जानने के हमारे साथ जुडें रहिये

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