haryana story | हरियाणा राज्‍य के बनने की कहानी

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 haryana story, कई  इतिहास के विद्वानों मत है हरियाणा शब्द का संबंध वेदों पुराणों से है। लेकिन अगर लिखित इतिहास के बात कर तो हरियाणा सबसे पहले महोम्मद—बिन–तुगलक दौर के सिलालेखों में हरियाणा शब्द देखा जा सकता है।  मुगल काल में हरियाणा संयुक्त प्रांत वर्तमान के उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था। मगर 1857 के गदर में हरियाणा की भूमिका को देखते हुए बरतानिया हुकूमत ने हरियाणा को उत्तर प्रदेश से अलग कर पंजाब में शामिल कर दिया। तब से लेकर 1नवम्बर 1966 तक हरियाणा संयुक्त पंजाब का हिस्सा रहा। 1 नवंबर 1966 हरियाणा स्वतंत्र भारत का 17 वा राज्य बना।  क्या थी राजनैतिक लड़ाई और हरियाणा बनने के पीछे के संघर्ष कि कहानी?

क्या था haryana davlepoment committee की रिपोर्ट में जिसने सबको चौंका और सरकार को हरियाणा को राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया? आखिर कोन थी वो राजनैतिक शक्तियां जो हरियाणा को राज्य बनने देना चाहती थी?

तो इस तरह बना हरियाणा

पंजाब धड़े के अकाली नेता मास्टर तारा सिंह आजादी के बाद  लंबे समय से भाषा और धर्म के आधार पर सिखों के लिए अलग पंजाब सूबे की मांग कर रहे थे। मगर पंजाबी भाषी क्षेत्र में उन्हें सभी जातियों का समर्थन प्राप्त नहीं होने के चलते केंद्र की नेहरू सरकार उनकी मांगो को लगातार  अनदेखा कर रही थी। 1952 के चुनाव में मास्टर तारा सिंह की मांग को झटका लगा जब विधान सभा चुनाव में  पंजाबी भाषी क्षेत्र की 126 विधानसभा सीटों में मास्टर जी की पार्टी सिर्फ 14 सीटों पर जीत दर्ज कर सकी।  मगर मास्टर जी ने हार नहीं मानी और और आंदोलन जारी रखा। पहली बार भाषा के आधार पर 1 अक्टूबर 1953 को भाषा के आधार पर आंध्र आजाद का पहला राज्य बना।

15 दिसंबर 1952 में 58 दिन के लंबे अनशन के बाद पोट्टी श्री रमलू नामक एक  सत्याग्रही की जान चली गई। ओर पूरे आंध्रप्रदेश में हिंसा की आग धधक उठी। आंध्र वासियों ने सरकारी कार्यालों पर हमले करने शुरू कर दिए और दो दिन में ही केंद्र की नेहरू सरकार को झुकना पड़ा। और यहीं से मिली मास्टर तारा सिंह के लिए यहीं से जागी उम्मीद की एक नई किरण। 1956 आते आते देश की कई राज्यों के आधार पर आधिकारिक दर्जा दिया जा चुका था। सिखों में इसको लेकर काफी असंतुष्टि फैलने लगी। 1956 में ज्ञानी करतार सिंह ने नेहरू सरकार पर कटु टिप्पणी करते हुए लिखा देश के संविधान में 14 भाषाओं को आधिकारिक दर्जा प्राप्त है जिनमे से 13 को राज्य बना दिया गया है। आप सिखों की वफादारी पर संदेह करते है इसी लिए आपने अभी तक इसे भाषा के आधार पर राज्य नहीं बनाया है। 1960 आते आते अकालियों का आंदोलन जोर पकड़ने लगा।संयुक्त पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने आंदोलन को दबाने के लिए मास्टर तारा सिंह समते सैंकड़ों अकालियों को जेल में डाला मगर अब ये आंदोलन जन आंदोलन बन चुका था। अक्टूबर 1960 में संत फतेह ने नेहरू को सिखों के लिए अलग हु राज्य की मांग को लेकर पत्र लिखा। मगर प्रधानमंत्री नेहरू ने अलग सूबे की मांग को नकार दिया।

इस तरह उठी पंजाब को अलग सूबा बनाने की मांग

18 दिसंबर 1960 को संत फतेह सिंह ने आमरण अनशन की घोषणा कर दी। इसके बाद नेहरू सरकार सकते में आई और 23 दिसंबर को नेहरू ने दिल्ली में एक जनसभा को संबोधित करते हुए संत फतेह सिंह से अनशन खत्म करने की मांग की ओर वार्तालाप के लिए न्योता दिया। मगर संत अपनी मांग पर अड़े रहे। नेहरू ने  6 जनवरी 1961 को भावनगर की जनसभा में बोलते हुए सिखों के प्रति किसी भी प्रकार के भेद भाव को नकारा और एक फिर अनशन खत्म करने की मांग की। इस बार नेहरू की अपील का असर संत पर हुआ और संतफतेह सिंह ने 8 फरवरी को अनशन खत्म कर नेहरू से मुलाकात की। नेहरू ने पंजाबी भाषा को बढ़ावा देने पर हामी भरी मगर सिखों के अलग सूबे की मांग से फिर इनकार कर दिया गया। 

अब बारी थी मास्टर जी की। सिखों के साथ हो रहे भेदभाव का हवाला देते हुए। मास्टर तारा सिंह 15 अगस्त 1961 को सिखों के पवित्र शहर अमृतसर में आमरण अनशन पर बैठ गए।  1अक्टूबर 1961 को नेहरू ने संसद भवन से बोलते हुए एक हाई लेवल इनक्वारी के आदेश दिए। इसके बाद मास्टर तारा सिंह ने 48 दिनों के बाद अपना अनशन खत्म कर दिया। पूर्व न्यायाधीश एस आर दाश की अध्यक्षता में सिखों पर हो रहे भेद भाव के दावे की सचाई को जांचने के लिए कमीशन का गठन किया गया। 9 फरवरी 1961 को कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सौंपी।

कमीशन ने सिखों पर हो रहे भेद भाव के दावे को सिरे से नकार दिया। ओर कुछ समय के लिए अकालियों की मांग ठंडे बस्ते में चली गई। दूसरी तरफ दक्षिणी पंजाब यानिकि वर्तमान के हरियाणा में भी अलग संस्कृति और हिंदी भाषा के आधार पर अलग हरियाणा राज्य की मांग को लेकर हरियाणा लोक समिति के कद्दावर नेता और संयुक्त पंजाब की सरकार में उप मुख्यमंत्री रह चुके प्रोफेसर शेर सिंह 1962 के चुनाव में कहानी में एक नया ट्विस्ट आया जब दक्षिणी पंजाब वर्तमान के हरियाणा की 54 विधानसभा सीटों में से  23 पर गैर कांग्रेसी उम्मीदवारों ने जीत दर्ज। हालाकि प्रोफेसर शेर सिंह झज्जर विधान सभा से कांग्रेस के मजदूर प्रकोष्ठ के अध्यक्ष और हरियाणा के पहले मुख्यमंत्री पंडित भगवद दयाल शर्मा से 1282 वोटों से हार गए।

वहीं कांग्रेस पार्टी से टिकट काट जाने के बाद देवीलाल आजाद उम्मीदवार के तौर पर फतेहाबाद से चुनाव लडे और लगातार तीसरी बार विधानसभा पहुंचे। लोकसभा में भी कांग्रेस पार्टी को निराशा हर लगी हरियाणा हरियाणा की 7 लोकसभा सीटों में से सिर्फ 2 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई। कोई बड़ी राजनैतिक शक्ति न होने के बौजूद जन संघ ने तीन लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की लहरी सिंह भी जनसंघ की टिकट पर रोहतक से जीतकर लोकसभा पहुंचे। हरियाणा प्रदेश की जनता अपना संदेश साफ कर दिया थे के वो अब और अधिक पंजाब के साथ नहीं रहना चाहते।

1962 में चीन से युद्ध के चलते  और फिर 27 मई 1964  प्रधान मंत्री गुजर जाने के बाद पंजाब हरियाणा समस्या को कुछ समय के लिए हाशिए पर धकेल दिया गया। मुद्दे में एक बार फिर जान आई जब अक्टूबर 1964 में हरियाणा क्षेत्र के 49 विधायकों ने मिलकर विधानसभा में एक ज्ञापन सौंपा जिसमें हरियाणा के क्षेत्र के साथ हो रहे भेद भाव और अनदेखी का जिक्र किया गया था। पंजाब सरकार सकते में आई  और श्री राम शर्मा की अध्यक्षता में मार्च 1965 हरियाणा डोलेपमेंट कमेटी का गठन किया।  1966 की शुरवात में कमेटी ने चौंकाने वाली रिपोर्ट सौंपी। क्या था इस रिपोर्ट में जिसने हरियाणा बनने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई?

रिपोर्ट में हरियाणा के साथ हो भेद भाव को साफ तौर पर देखा जा सकता था। पंजाब सिविल सर्विस में 309 अधिकारियों में से हरियाणा क्षेत्र के मात्र 20 अधिकारी सेवा में थे। 

सचिव, सह सचिव, उप सचिव जैसे महत्पूर्ण पदों पर हरियाणा के मात्र 4 अधिकारियों को जग मिली थी वहीं पंजाब के 105 अधिकारी इन पदों पर तैनात थे।  उच्च न्यायालय में पंजाब के 14 जजों के मुकाबले हरियाणा के मात्र 2 जज कार्यरत थे। पुलिस महकमे में हरियाणा क्षेत्र की मौजूदगी लगभग न के समान थी। 484 गजटेड में से हरियाणा के मात्र 24 अधिकारी थे। रिपोर्ट में पाया गया विकास के मामले में भी हरियाणा क्षेत्र पंजाब से बहुत पिछड़ा हुआ है।  जहां पंजाबी भाषी क्षेत्र के 29 फीसद हिस्से को बिजली से जोड़ा गया था वही हरियाणा के मात्र 18 फीसदी हिस्से तक बिजली पहुंची थी। सिंचाई विभाग के हाल तो और बद्तर थे पंजाबी भाषी क्षेत्र के मुकाबले हरियाणा में मात्र 1 चौथाई हिस्से तक पानी पहुंच रहा था।

अब भारत सरकार हर हाल में हरियाणा पंजाब समस्या का हल निकालना चाहती थी 1965 के पाकिस्तान युद्ध की समाप्ति के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रा गांधी ने संसदीय समिति गठन किया जिसका नाम था हुकुम सिंह समिति। लोकसभा स्पीकर हुकुम सिंह और हरियाणा छेत्र के प्रतिनिधि के तौर पर जन संघ के चौधरी लहरी सिंह और बंसीलाल शामिल थे। चौधरी बंसीलाल ने कांग्रेस पार्टी के लिए वफादारी दिखाते हुए  हरियाणा जैसे छोटे राज्य के गठन के विरुद्ध अपनी राय दी। लहरी सिंह ने मजबूती के साथ अपनी हरियाणा की आवाम की आवाज को ध्यान में रख कर अपनी पार्टी के विरुद्ध जाकर हरियाणा के पक्ष में राय दी। 

दरअसल जनसंघ हरियाणा की जगह महा पंजाब बनने के पक्ष में था। जब जनसंघ के केंद्रीय नेतृत्व ने लहरी सिंह को तलब किया तो लहरी सिंह ने ये कहते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिए के मैं “आपके दिए के चुनाव चिन्ह पर चुनाव जरूर लड़ा था मगर उसमे तेल मेरा अपना था”

दूसरी तरफ जन संघ की तरह अकाली भी पंजाबी सूबे के बनने की मांग के विरुद्ध थे। अकालियों की मंशा थी के रोहतक ,गुड़गांव,महेंद्रगढ़ जैसे सिख रहित जिलों को उत्तर प्रदेश या राजस्थान में जोड़ दिया जाए और शेष को पंजाबी भाषी राज्य में तब्दील कर दिया जाए । संत फत्ते सिंह की अध्यक्षता में हुई अंतिम बैठक जिसमे हरियाणा पंजाब के बनने का फैसला लिया गया। हरियाणा की तरफ से इस बैठक में चौधरी देवीलाल,चौधरी रणवीर सिंह,बाबू आनंद स्वरूप,लाला रामशरण चांद मितल, ओर प्रोफेसर शेर सिंह ने हिस्सा लिया। बैठक में संयुक्त तौर पर  पंजाब को चीर कर दो हिस्सों में बाटने का निर्णय लिया गया। फिर भारत सरकार ने बैठक में हुए समझौते को अमली जामा पहनाने के लिए साहा आयोग का गठन किए गया। ओर 1 नवंबर 1966 को हरियाणा देश का 17वा राज्य बनाया गया। कांग्रेस के पास बहुमत होने के चलते 62 विधायकों वाले हरियाणा में कांग्रेस ने अंतरिम सरकार बनाई । हरियाणा के पहले मुख्यमंत्री बने प्रोफेसर शेर सिंह को चुनाव हराकर विधान सभा पहुंचे पंडित भगवत दयाल शर्मा। ओर यहीं से शुरू हुआ जाति सता और धन का खेल आपको बताएंगे अगले अध्याय में।

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