इस लेख में हम आपको ज्ञानवापी मस्जिद के इतिहास को सम्पूर्ण जानकारी (History of gyanvapi masjid in hindi) देने वाले है। हिन्दु धर्म की मान्यताओ के अनुसार काशी भगवान शिव की नगरी है। हिन्दु धर्म की तमाम मान्यताओ और पौणाणिक कथाओ को अपने अन्दर समेटे इस नगरी को बनारस और वाराणसी भी कहा जाता है। इसी काशी में मौजूद है काशी विश्वनाथ मन्दिर। इस मन्दिर के ठीक सामने है ज्ञानवापी मस्जिद (gyanpavi masjid)। इसी मस्जिद के इतिहास को लेकर विवाद छिड़ गया है। आज इस लेख में हम आपको इस ज्ञानवापी मस्जिद के सम्पूर्ण इतिहास के बारे में बताने वाले है।

ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास इन हिंदी
बनने की कहानी
ज्ञानवापी मस्जिद (History of gyanvapi masjid in hindi) को लेकर जो लिखित इतिहास है उसके अनुसार 9-10 ईसवी में राजघाट की खुदाई के दौरान अविमुक्तेश्वर की सील मिली थी। आपको बता दे कि अविमुक्तेश्रवर को ही विशेश्र्वर या विश्र्वनाथ कहा जाता है। इस अविमुक्तेश्र्वर को ही आदिलिंग यानि प्रथम लिंग माना गया है। पौराणिक कथाओ के अनुसार ये दावा किया जाता है कि ये स्थान पार्वती और शिंव का आदि स्थान है यानि वो ये दोनो यही पर रहा करते थे। हिन्दू धर्म के कई बड़े ज्ञानी लोगो का ये भी मानना है कि काशी विश्र्वनाथ का ही पुराना नाम अविमुक्तेश्वर रहा होगा।
इस लेख को यहा तक पढ़ने के बाद आपको ये तो समझ में आ गया होगा कि काशी विश्वनाथ मन्दिर की बुनियाद कहा से है। फिलहाल इस कहानी को आगे बढाते है। 405 ईस्वी में एक चीनी दार्शनिक फाहियान भारत दौर पर आया था। फाहियान के अभिलेखो में भी अविमेक्तेश्र्वर का जिक्र हुआ है। अब जब ये जगह इतनी ज्यादा पवित्र और एतिहासिक थी तो यहा मन्दिर भी बना होगा। इतिहास के साक्ष्यो के अनुसार इस जगह पर पहली मंदिर का निर्माण वैन्यगुप्त के शासनकाल में 500-508 ईसवी में हुआ। इस बात की तस्दीक 635 ईसवी में भारत यात्रा पर आये एक दूसरे चीनी नागरिक हे्न सांग की किताब से होती है।
वक्त का पहिया थोड़ा सा और घूमता हे। 10-11 वी शताब्दी आती है। इतिहास के मुताबिक उस समय विश्वनाथ मंदिर को बीबी रजिया के मस्जिद के बगल में बनाया गया था।
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तोड़ने की कहानी
काशी विश्वनाथ मन्दिर (History of gyanvapi masjid in hindi) पर पहला बड़ा हमला 12वीं शताब्दी ने मोहम्मद गोरी कुतुबद्दीन ऐबक से करवाया। ये तकरीबन 1194-1197 का वक्त रहा होगा। इस काल में कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गोरी के आदेश पर मंदिर को तोड़ने के लिए अपने सेना लेकर काशी पहुंच गया। उसकी सेना ने मंदिर के ऊपर हमला करके उसे तोड़ने की पूरी कोशिश कीे। लेकिन आसपास के लोगो के पराक्रम की वजह से वो मंदिर पूरी तरह से नही तोड़ पाया। फिलहाल काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का ये पहला प्रयास था।
तोड़ने के बाद फिर हुआ पुननिर्माण
जब 1230 में शम्सुद्दीन इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत पर काबिज हुआ तो उसने काकाशी विश्वनाथ मंन्दिर का पुनर्निमाण करवाया। इसके बाद तकरीबन 200 सालो तक काशी विश्र्वनाथ का मन्दिर पूरी तरह सुरक्षित रहा। लेकिन सन 1447 में एक बार मंदिर पर हमला हुआ। इस बार मंन्दिर को तोडने की कोशिश करने वाला जौनपुर का सुलतान महमूद शाह शर्की था। ये बीबी रजिया के वंश का ही था जिनका जिक्र हम इस लेख में पहले भी कर चुके है।
महमूद शाह शर्की के बाद काशी विश्र्वनाथ मन्दिर को 1585 में मुगल बादशाह अकबर के समय में राजा टोडरमल दोबारा से बनवाया। राजा टोडरमल अकबर के खास लोगो में से एक थे। उन्हे अपने एक साथी पंडित नारायण भट्ट की मदद से काशी में एक भव्य काशी विश्वनाथ का मन्दिर बनाया। लेकिन अकबर के बाद जब 1632 में शाहजाह का वक्त आया तो उसने इस मन्दिर को तोड़ने के लिए एक आदेश पारित कर दिया। शाहजाह ने मन्दिर तोड़ने के लिए अपनी सेना भी काशी में भेज दी। लेकिन तब हिन्दुओ की एक सेना भी मन्दिर को बचाने के लिए काशी पहुंच चुकी थ। हिन्दुओ की सेना के इसी प्रतिरोध की वजह से शाहजाह की सेना मन्दिर को तोड़ नही सकी लेकिन इस सेना ने काशी के 63 अन्य मन्दिर जरूर तोड़ दिये।
वक्त का पहिया थोड़ा सा और घूमा। जो काम पिता नही पाया उसको बेटे ने पूरा करने की कोशिश की। 1669 में शाहजाह के बेट औरंगजेब ने अपने पिता की तरह अपनी सेना को काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का फरमान जारी कर दिया। औरगंजेब का ये फरमान आज भी एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में सुरक्षित रखा हुआ ह। इन्ही इतिहासिक साक्ष्यो के मुताबिक 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया था। मुगले की सेना इस मन्दिर को तोडने को कामयाब भी हो गई थी। हिन्दू पक्ष ये दावा करता है कि तभी मन्दिर को तोड़कर उसके मलवे से ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई।

मन्दिर के फिर से बनने की कहानी
काशी विश्वनाथ मंदिर को दोबारा से बनाने का काम 1776-78 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने किया। उनके समय में मंदिर को दोबारा से बनाने के लिए एक आंदोलन भी छेड़ा गया था जिसका नेतृत्व 1752 में दत्तो जी सिंधिया और मल्हार राव ने किया था। इसी आंंदोलन से प्रभावित होकर महारानी अहिल्याबाई होल्कर शिव का मन्दिर बनाने के लिए प्रेरित हुई थी। लेकिन तब उन्होने मन्दिर बनाने के लिए औरंगजेब के समय पर बनाई गई मस्जिद को छोड़ दिया था। तब उन्होने इस मस्जिद के ठीक बगल में एक बडे और भव्य काशी विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था। आज जो हमे काशी विश्वनाथ मंदिर का जो स्वरूप दिखाई दे रहा है। वो उन्होने समय में ही बना था। एक अग्रेज इतिहासकार जेम्स प्रिंसेप ने 1831 में एक किताब Banaras Illustrated इसी मन्दिर को लेकर ये चित्र भी अंकित किया था ।

मस्जिद का नाम ज्ञानवापी कैसे पड़ा
ज्ञानवापी सस्कृत के दो शब्द ज्ञान और वापी से मिलकर बना है जिसका मतलब होता है ज्ञान का तालाब। ऐसा माना जाता है कि इस मस्जिद में जो तालाब है उसकी वजह से ही इसका नाम ज्ञान वापी रखा गया था। ज्ञानवापी को लेकर ये भी एक मान्यता है कि पृथ्वी पर गंंगा को बहाने से पहले भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल से इस जगह पर कूप का निर्माण करवा मांं पार्वती को ज्ञान दिया था इसलिए ही इस जगह का नाम ज्ञानवापी पड़ा।
मन्दिर-मस्जिद विवाद कब और कैसे शुरू हुआ
1752 के बाद से मन्दिर और मस्जिद को लेकर स्थिति ऐसी बनी रही। मुस्लिम धर्म के लोग ज्ञानवापी मस्जिद के अन्दर नमाज अदा करने आते हे तो हिन्दू काशी विश्वनाथ मंदिर के अंदर बाबा के दर्शन करने आते रहे। काफी सालो तक ऐसा ही चलता रहा। 1936 में इस मस्जिद को लेकर पहला विवाद तब सामने आया। जब दीन मोहम्मद नाम के एक मुसलमान ने ज्ञानवापी परिसर को लेकर कोर्ट में एक याचिका दायर कर दी। अपनी याचिका में उसके ज्ञानवापी मस्जिद और उसके आसपास की जमीनो को अपना हक बताया। लेकिन तब अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद को किसी की भी जमीन मानने से इन्कार कर दिया।
फिर आया 1991
ज्ञानवापी मस्जिद के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोढ़ 1991 में भी आया था। इस साल काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट ने पूरे मंदिर और मस्जिद के परिसर पर अपना दावा किया था। वो अपने इस दावे को लेकर कोर्ट में भी गये थे। ये मामला इलाहाबाद के कोर्ट में अब भी चल रहा है। उस वक्त इस मामले को कोर्ट में ले जाने वाले मंदिर के पुरोहितो के वंशक सोमनाथ व्यास, संंस्कृत के प्रोफेसर डॉ. रामरंग शर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता हरिहर पांडे थे। इन लोगो के वकील का नाम था विजय शंकर रस्तोगी। लेकिन तब कोर्ट ने उनकी याचिका पर उपासना स्थल एक्ट 1991 का हवाला देकर स्टे लगा दिया था।

फिर आया 2021
ज्ञानवापी मस्जिद के मालिकाना हक को लेकर 1991 में कोर्ट ने भले ही स्टे लगा दिया। लेकिन ये एक ऐसा विवाद था जिसको अभी काफी आगे तक जाना था। 1991 के बाद 18 अगस्त 2021 को 5 महिलाओ ने वाराणसी की एक अदालत में एक याचिका दायर की। अपनी इस याचिका में उन्होने ज्ञानवापी मस्जिद में मौजूद हिन्दू देवी- देवताओ के दिखने और ना दिखने वाली मुर्तियो की पूजा करने की मांग की। वाराणसी की अदालत ने इन महिलाओ की इस मांग को स्वीकार कर लिया और मस्जिद के वीडियोग्राफी करने की इजाजत दे दी। इसके लिए बाकायदा एक कमीशन का भी गठन किया गया।
अब आते है 2022 में
तमाम रूकावटो, विवादो और कोलाहलो के बाद कोर्ट के आदेश पर ज्ञानवापी परिसर की वीडियोग्राफी कर ली गई है। कोर्ट कमीशन ने मंदिर के अंदर अपना सर्वे पूरा कर लिया है। ये सर्वे 16 मई 2022 को खत्म हुआ। इस सर्वे को लेकर हिन्दू पक्ष का दावा है कि उन्हे मस्जिद के वुजू खाने के अंदर एक विशाल शिवलिंग मिला है जिसका मूंह नंदी की तरफ है। वही इस सर्वे को लेकर मुस्लिम पक्ष ये दावा कर रहा है कि वो शिवलिंग जैसा कुछ भी नही है। वहां जो मिला है वो सिर्फ एक फुव्वारा है जिसके ऊपर पानी के आने जाने का रास्ता भी है। फिलहाल ये फुव्वारा है या शिवलिंग है। इसका फैसला तो कोर्ट को करना है। लोकल कोर्ट ने फिलहाल उस हिस्से को सील करने का आदेश दिया है जहा शिवलिंग मिलने की बात की जा रही है। इस पूरे मामले को लेकर अभी अंंतिम फैसला आना बाकी है। जब तक इस केस को लेकर पूरा फैसला नही आ जाता तब तक कोर्ट ने इस मस्जिद में नमाज पढने की इजाजत मुस्लिमो को दे दी है।


इशात जैदी एक लेखक है। इन्होने पत्रकारिता की पढाई की है। इशात जैदी पिछले कई सालों से पत्रकारिता कर रहे है। पत्रकारिता के अलावा इनकी साहित्य में भी गहरी रूचि है।