Imam Husain, जिन्‍हे तीन दिन का भूखा प्‍यासा कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया गया

खुदा का शुक्र है हम हिन्‍दुओं में, कोई शब्‍बीर का कातिल नही है- माथुर लखनवी

इन्‍सान जब शैतान बनने पर आमादा हो जाये और इन्‍सानियत जब शैतानी बादशाहो के सामने अपना सर झुकाने के लिए मजबूर होने लगे तब इन्‍सान के दिलो में इन्‍सानियत की लौ जगाने के‍ लिए जिस रौशनी की जरूरत पड़ती है, उसे इमाम हुसैन कहते है। जी हॉ वही इमाम हुसैन (imam husain in hindi) जिन्‍हे कर्बला के मैदान में उनके पूरे परिवार, दोस्‍तो और हमदर्दो के साथ इसलिए शहीद कर दिया गया क्‍योकि उन्‍होने झूठे और बदकिरदार हुकूमत के सामने अपना सर झुकाने से इंकार कर दिया था।

यू तो इमाम हुसैन को शहीद हुए एक जमाना गुजर गया लेकिन उन्‍होने अपने जमाने के यजीद के चेहरे से नकाब उठाकर हर जमाने के इन्‍सान को ये समझा दिया कि अपने जमाने के जालिम बादशाहो की पहचान कैसे करनी है। इमाम हुसैन (imam husain) ने अपनी शहादत के जरिये दुनिया भर के मुसलमानो को ये बता दिया कि सिर्फ कलमा पढ़कर रोज मुसल्‍ले पर बैठकर खुदा की इबादत करने से कोई मुसलमान नही हो जाता बल्कि मुसलमान वो होता है जिसका दिल इन्‍सानियत के लिए धड़के और जो खुद से ये वादा कर ले कि चाहे मेरा सिर कलम हो जाये मै जुल्‍म, नफरत और जाहिलियत के सामने अपना सर नही झुकाऊगा।

इमाम हुसैन की शहादत का ही असर है कि आज दुनिया भर में जब भी इन्‍सानियत पर मर मिटने की बात आती है तो इमाम हुसैन का नाम खुद ही लोगो की जबान पर आ जाता है। इमाम हुसैन को आखिर क्‍यो कर्बला के मैदान अपनी और अपने बच्‍चो की शहादत देनी पड़ी। आखिर क्‍यो इमाम हुसैन को कर्बला के मैदान में तीन दिन का भूखा प्‍यासा शहीद कर दिया है। तो अगर आप इमाम हुसैन और उनकी शहादत के बारे में विस्‍तार से जानना चाहते है तो ये लेख खास आपके लिए है इस लेख में हम आपको इमाम हुसैन के बारे में विस्‍तार से बताने वाले है। इमाम हुसैन और उनकी शहादत के बारे में विस्‍तार से जानने के लिए इस लेख को पूरा जरूर पढ़े

imam husain

Imam Husain biography in Hindi

जन्म 8 जनवरी 626 AD
मृत्यु 10 अक्टूबर 680 (उम्र 54)
(10 Muharram 61 AH)
कर्बला, उमय्यद सल्तनत
मृत्यु का कारणकर्बला की लड़ाई में शहीद हुए
स्मारक समाधिइमाम हुसैन रौजा, ईराक
जातीयताअरब (कुरैष)
अवधि670 – 680 CE
पिता का नाम हजरत अली
मां का नाम फातिमा जहरा
भाई का नाम हजरत हसन
उत्तराधिकारीअली इब्न हुसैन जैन अल-आबिदीन
धार्मिक मान्यताइस्लाम 
जीवनसाथीशहर बानू
उम्मे रुबाब
उम् लैला
उम् इस्हाक़
इमाम हुसैन के बच्‍चे अली असगर
उम्‍मे कुलसूम
सकीना
फातिमा
जैनब
जैनुल आबेदीन

Imam husain kaun the : इमाम हुसैन कौन थे

कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन को अपनी शहादत क्‍यो देनी पड़ी। ये जानने से पहले आपको बताते है कि इमाम हुसैन कौन थे। इमाम हुसैन इस्‍लाम धर्म के संस्थापक हजरत पैगम्‍बर मोहम्‍मद साहब के नवासे थे। वही मोहम्‍मद साहब जो अल्‍लाह के आखिरी नबी है और जिनके ऊपर अल्‍लाह ने अपनी किताब कुरान शरीफ को नाजिल किया। हजरत मोहम्‍मद साहब की बेटी फातिमा जहरा की शादी हजरत अली से हुई थी। हजरत अली मोहम्‍मद साहब के चाचा हजरत अबुतालिब के बेटे थे इसलिए वो मोहम्‍मद साहब के चचेरे भाई भी थे।

हजरत पैगम्‍बर मोहम्‍मद साहब के नवासे और हजरत अली के बेटे हजरत इमाम हुसैन का जन्‍म मक्‍का में सन 626 ईसवी को हुआ था। अगर इस्‍लामिक तारीखो के हिसाब से देखा जाये तो इमाम हुसैन 3 शाबान सन 4 हिजरी में पैदा हुये थे।

इमाम हुसैन हजरत अली की दूसरी सन्‍तान थे। उनकी पहली सन्‍तान का नाम इमाम हसन था। इस्‍लामिक इतिहासकारो के अनुसार हजरत मोहम्‍मद साहब अपने नवासे हजरम इमाम हुसैन को अपने जिगर का टुकड़ा मानते थे। हजरत मोहम्‍मद साहब ने ही इमाम अली के बेटे और अपने नवासे का नाम हुसैन रखा था। इमाम हुसैन जब पैदा हुये है तो उन्‍होने इस दुनिया में जिस पहले इन्‍सान को देखा था वो हजरत मोहम्‍मद साहब ही थे। हजरत मोहम्‍मद ने ही इमाम हुसैन के कानो में अजान दी थी जो कि इस्‍लामिक रीति रिवाज का हिस्‍सा है।

हजरत मौहम्‍मद साहब को अपने नवासे हजरत हुसैन से कितनी मोहब्‍बत थी इस बात की तस्‍दीक इस्‍लामिक इतिहास की कई किताबो और हदीसो में मिलती है। कई इस्‍लामिक इतिहासकारो की किताबो में इस बात का जिक्र मिलता है कि हजरत मोहम्‍मद साहब अपने आखिरी दिनो में अपने नवासे हजरत इमाम हुसैन के साथ ही अपना काफी समय गुजारा करते थे। कई इस्‍लामिक इतिहासकार तो ये भी कहते है कि रसूले खुदा इमाम हुसैन की वजह से अपने सजदो को भी तूल दे दिया करते थे। इसका मतलब ये है कि अगर कभी इमाम हुसैन रसूल खुदा की सजदे की हालत में उनके कंधो पर बैठ जाया करते थे तो रसूले इमाम हुसैन को अपने कंंधो पर से उठाने के बजाये अपने सजदे की टाइमिंंग की बढ़ा दिया करते थे। इस बात से आप अंदाजा लगा सकते है कि हजरत मोहम्‍मद साहब को अपने नवासे इमाम हुसैन से कितनी ज्‍यादा मोहब्‍बत रही होगी।

इमाम हुसैन अपनी जिन्‍दगी के शुरूआती 6 सालो तक अपने नाना हजरत पैगम्‍बर मोहम्‍मद साहब के साथ रहे। 632 ईसवी में हजरत पैगम्‍बर मोहम्‍मद साहब की मृत्‍यू हो गई। इन 6 सालो में हजरत मोहम्‍मद साहब ने हजरत इमाम हुसैन को दीन से लेकर दुनिया तक का ऐसा इल्‍म दे दिया जिसको इमाम हुसैन ने अपनी जिन्‍दगी के आखिरी लम्‍हो तक अपने सीने से लगाये रखा। ये हजरत पैगम्‍बर मोहम्‍मद साहब के इल्‍म की रौशनी ही थी जिसको अपने सीने में जलाकर इमाम हुसैन ने मरते दम पर जुल्‍म और अहंकार से सामने अपना सिर कटा तो दिया लेकिन झुकाया नही।

इमाम हुसैन को क्‍यो मारा गया

इस लेख को यहा तक पढ़ने के बाद आपको इमाम हुसैन की जिन्‍दगी के बारे में काफी कुछ पता चल गया होगा। अब आइये ये जानने और समझने की कोशिश करते है कि आखिर क्‍यो हजरत मोहम्‍मद साहब के चहेते नवासे हजरत हुसैन को उन्‍ही की उम्‍मत ने कर्बला के मैदान में तीन दिन का भूखा प्‍यासा शहीद कर दिया। हजरत मोहम्‍मद साहब की वफात यानि कि उनकी मृत्‍यू के बाद इस्‍लामिक जगत में खिलाफत का खूनी खेल शुरू हो गया। हालाकि हजरत मोहम्‍मद साहब ने अपनी जिन्‍दगी में अपने आखिरी हज के दौरान लाखो हाजियो के सामने जानशीन डिक्‍लेयर कर दिया था। अपनी आखिरी हज यात्रा के दौरान लाखो मुसलमानो को मक्‍का और मदीने के बीच पड़ने वाले एक बडे़ से मैदान गदीरे-ए-खुम में अपने चचेरे भाई हजरत हाथो को उठाते हुए हजरत मोहम्‍मद साहब ने ऐलान किया कि

मन कुंतो मौला फ़-हाज़ा अलीयुन मौला

मोहम्‍मद साहब के अरबी भाषा में किये गये इस ऐलान का सीधा सा मतलब ये है कि हजरत मोहम्‍मद साहब ने कहा कि जिस जिस का मै मौला हू या जो जो भी लोग मुझे अपना मौला मानते है उनको उनके मरने के बाद हजरत अली को अपना मौला मानना है।यानि हजरत मोहम्‍मद साहब के बाद इस्‍लाम का खलीफा या उत्‍तराधिकारी किसे बनना था। ये गदीरे-खुम के मैदान में हजरत मोहम्‍मद साहब ने खुल अल्फाजो में बता दिया था। लेकिन मोहम्‍मद साहब की मृत्‍यू के बाद उनकी इस बात पर अमल नही किया गया। हजरत मोहम्‍मद साहब की मृत्‍यू के बाद हजरत मोहम्‍मद साहब के साथी और उनके पुराने सहाबी हजरत अबुबक्र इस्‍लाम धर्म के पहले खलीफा बन गये और यही मुसलमानो के बीच कोई वैचारिक टकराव पैदा ना हो। इसलिए हजरत मोहम्‍मद साहब के परिवार वाले ने इस खिलाफत को पहले तो अस्‍वीकार कर दिया लेकिन बाद में इस्‍लामिक जगत के बीच गृहयुद्ध की स्थिति ना बने इसलिए उन्‍होने ना चाहते हुए भी अबुबक्र की खिलाफत को अपनी स्‍वीकृति दे दी।

हजरत मोहम्‍मद साहब के उत्‍तराधिकारी को लेकर होने वाला ये अन्‍याय हजरत अबुबक्र के बाद भी जारी रहा। हजरत अबुबक्र के बाद हजरत उमर इस्‍लाम धर्म के दूसरे खलीफा बन गये। हजरत उमर के बाद हजरत उस्‍मान को इस्‍लाम धर्म का तीसरा खलीफा बना दिया गया लेकिन हजरत उस्‍मान तक आते आते मुसलमानो के बीच अपने खलीफाओ को लेकर गहरा असंतोष पैदा हो गया है। हजरत मोहम्‍मद साहब के आदर्श और उनकी शिक्षाये और खुद मुसलमानो की आर्थिक स्थिति करप्‍शन और कुशासन की वजह से कमजोर होने लगी थी। इ‍सलिए आम मुसलमानो को अपने ही खलीफा के खिलाफ बगावत करनी शुरू कर दी जिसका नतीजा ये हुआ कि खिलावत के खूनी खेल से बागी हो चुके मुसलमानो ने अपने ही खलीफा का कत्‍ल कर दिया और हजरत अली से इल्‍तेजा करने लगे कि उनके खलीफा बन जाये।

हजरत अली ने इतने सालो तक अपने साथ हुई नांइसाफी पर खामोशी इख्‍तेयार कर ली थी और वो सिर्फ मोहम्‍मद साहब और उनकी शिक्षाओ को फैलाने में लगे हुए थे। लेकिन जब मुसलमान खुद ही हजरत अली के सामने उन्‍हे अपना खलीफा बनाने के लिए तो मुसलमानो की इसी फरमाईश की वजह से हजरत अली ने इस्‍लाम का चौथा खलीफा बनना मंजूर कर लिया।

हजरत अली की खिलाफत का दौर

इल्‍म की वो रौशनी जो हजरत मोहम्‍मद साहब ने दुनिया में जलाई उसकी मशाल उनकी मृत्‍यू के काफी सालो के बाद सही हाथो में पहंची थी। लेकिन इतने सालो में जो अधेरा कायम हो गया था उसको भी इस रौशनी के सामने आकर टकराना था और वो टकराया था। हजरत अली की खिलाफत को पहली सबसे बड़ी चुनौती हजरत मोहम्‍मद साहब की सबसे छोटी पत्‍नी हजरत आयशा से मिली। हजरत आयशा ने हजरत अली से लड़के के लिए अपनी एक सेना बनाई और इराक के बसरा नाम के एक नगर में हजरत अली की सेना के सामने आकर खड़ी हो गई। इस्‍लाम के इतिहास में हजरत अली और हजरत आयशा के बीच हुई लड़ाई को जंग-ए-जमल के नाम से जाना जाता है।

इस जंग मे हजरत अली ने हजरत आयशा की सेना को बुरी तरह से परास्‍त कर दिया। लेकिन इस जंग में जीत के बाद भी उन्‍होने हजरत आयशा को पूरे इज्‍जतो एतराम के उनके छोटे बाई मोहम्‍मद बिन अबुबकर और चालीस महिला सिपाहियो के साथ उन्‍हे मदीना वापस भेज दिया।

इस लेख को यहा तक पढ़ने के बाद आपके दिमाग में एक सवाल जरूर आता होगा कि अभी तब बताई गई इस सारी इस्‍लामिक हिस्‍ट्री का कर्बला से क्‍या सम्‍बन्‍ध है। अगर आप ये सोच रहे है तो हम आपको बता दे कि इन सभी घटनाओ के तार कर्बला की सरजमीन से जुड़े हुए है। दरअसल कर्बला की नीव तो उसी दिन पड़ गई थी जब हजरत मोहम्‍मद साहब की इच्‍छा के विपरीत हजरत अली की बजाय हजरत उमर को इस्‍लामिक जगत का पहला खलीफा बना दिया गया था। फिलहाल थोड़ा सा सब्र रखिये हम बहुत जल्‍द कर्बला तक पहुचने वाले है।

जंंगे जमल के बाद जिन लोगो को हजरत अली से पुरानी दुश्‍मनी थी या जिन लोगो के पूर्वज हजरत अली की तलवार से मारे गये थे। वो अब खुलकर हजरत अली के सामने आने लगे। हजरत अली के पुश्‍तैनी दुश्‍मन अब खुलकर उनके इस्‍लामिक शासन के खिलाफ विद्रोह करने लगे।

मक्‍का का उमय्या वंश का एक सरदार जिसका नाम अमीर मुआविया था और जो अब तक सीरिया का गर्वरन था और जिसके पूवजों में तीसरे खलीफा हजरत उस्‍मान भी थे। वो खुल कर हजरत अली की खिलाफत का विरोध करने लगा। अमीर मुआविया ने अपनी बगावत की शुरूआत में पहले तो क़त्ले उस्मान के बदले लेने का नारा लगाया लेकिन बाद में ख़िलाफ़त की दावेदारी करने लगा। मुआविया सीरिया का गर्वनर था इ‍सलिए उसने ये ऐलान कर दिया कि जहा पर उसकी सत्‍ता है वो प्रान्‍त हजरत अली के इस्‍लामिक राज्‍य से अलग होगा और वहा का खलीफा वो खुद होगा। उसने बाद में हजरत अली की पूरी इस्‍लामिक सत्‍ता के खिलाफ जंग छेड़ दी जिसको उसने जेहाद का नाम दिया।

अगर हजरत अली और अमीर मुआविया के बीच हिजरत के 39 वें वर्ष में जंग हुई जिसको जंगे सिफ्फीन बोला गया। इस जंग को अगर इनशार्ट में बताया जाये तो हुआ कुछ ऐसा कि ये पूरी जंग एक समझौते के तहत खत्‍म हो गई जिसके तहत मुस्लिम समाज दो भागो में बट़ गया। एक वर्ग वो था जो हजरत अली को इस्‍लाम का सही उत्‍तराधिकारी समझता था और दूसरा वर्ग वो था जो मुआविया की तमाम बातो को सही समझता था। इस्‍लाम में इन दोनो धड़ो में से एक को सुन्‍नी मुसलमान कहा गया और दूसरे को शिया मुसलमान। सुन्‍नी मुसलमान हजरत अली के पुर्व के तीनो खलीफाओ को मानने के अलावा मुआविया की सत्‍ता को भी स्‍वीकार करते थे और अब भी करते है। तो वही शिया मुसलमानो का मानना था और मानना है कि हजरत अली ही हजरत मोहम्‍मद साहब के बाद इस्‍लाम के सबसे ज्‍यादा मोतरम शख्सियत है। फिलहाल बात को जल्‍दी जल्‍दी आगे बढाये तो बाद में हजरत अली को भी एक मस्जिद में शहीद कर दिया गया। हजरत अली की मृत्‍यू के बाद उनके बेटे हजरत हसन से सत्‍ता सभाली लेकिन मुआविया ने उन्‍हे भी परेशान करना शुरू कर दिया। इमाम हसन के अनेक साथियों को आर्थिक फ़ायदों और ऊँचे पदों का लालच देकर मुआविया ने हज़रत हसन सत्‍ता से हटाने में कामयाबी हासिल कर ली और खुद इस्‍लाम का खलीफा बन गया। लेकिन हजरत हसन ने सत्‍ता को छोड़ने से पहले एक डील की। ये डील 26 जुलाई 661 ईसवी को हुई जिसके तहत इमाम हसन और अमीर मुआविया के बीच एक संधि हुई। इस सन्धि की कुछ मुख्‍य बाते इस तरह थी।

1) मुआविया की तरफ से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होगा।

(2) हज़रत अली के साथियों को सुरक्षा प्रदान की जाएगा।

(3) मुआविया को मरते वक़्त अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा।

(4) मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त पैग़म्बरे इस्लामके परिवार के किसी विशिष्ट व्यक्ति को सौंप दी जायेगी।

यजीद का जीवन परिचय

इससे पहले हम आपको कर्बला तक ले जाये आपको कर्बला की कहानी के सबसे बड़े विलेन यजीद के करेक्‍टर के बारे में भी बता होना चाहिए तभी आप कर्बला को अच्‍छे से समझ पायेगे। राक्षस, शैतान, क्रूर, वहशी या फिर कहिये कि जीता जागता हैवान। यजीद के करेक्‍टर को इन सारे शब्‍दो को बिना नही बयान किया जा सकता है। वो बनी उमय्या के उसी कबीले का सपूत था जो अपने वहशीपन के लिए पूरे अरब में जानी पहचानी जाती थी। इसी क़बीले के सरदार और यज़ीद के दादा अबू सूफ़ियान ने कई बार हज़रत मोहम्मद (स) की जान लेने की नामुमकिन शिश की थी। इस कबीले के कई लोगो ने हजरत मोहम्‍मद के कई साथियो को क्रूरता की सारी हदो को पार करते हुए उनके शरीरो को नोच नोच के खाया था।

यज़ीद अपने बचपन के दिनो से ही जंगली जानवरो के बीच रहा था। इसलिए बड़े होते होते उसके अंदर जानवरो जैसी आदते आ गई थी। यजीद कितना बड़ा वहशी था इस बात का अंदाजा आप ऐसे भी लगा सकते है कि वो अपने के हरम में रह चुकी दासियों के साथ भी दुष्‍कर्म करता था जबकि इस्‍लाम के कानून के तहत वो दासियां उसकी मा की सामान थी।

यजीद की सत्ता कैसी थी

इस्‍लाम के तमाम बड़े इतिहासकार यजीद को एक इन्‍सान मानते है जो काफी बदकिरदार, अय्याश और जालिम किस्‍म का था। इन्‍सानियत का यजीद से दूर दूर तक कोई नाता नही था। मुआविया ने यजीन को इस्‍लामिक जगत खलीफा घोषित कर दिया था। अब आप खुद समझ सकते है कि एक बदकिरदार, जालिम और वहशी सोच का इन्‍सान अगर शासक बन जाये तो वो आवाम का क्‍या हाल करेगा। यजीद ने वो सब करना शुरू कर दिया जो उसकी फितरत में थे। वो इस्‍लाम और हजरत मोहम्‍मद साहब के आंर्दशो को बुरी तरह से तबाह और बर्बाद करना चाहता था। लेकिन उस वक्‍त हजरम मोहम्‍मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन मौजूद थे और यही बाद यजीद के रास्‍तो की सबसे बड़ी रूकावट थी। वो हर हाल में ये चाहता है कि बाकी मुसलमानो की तरह इमाम हुसैन भी उसके कुकर्मो, शराबखोरी और बदमाशियो को मान्‍यता दे दे। लेकिन इमाम हुसैन को अपने नाना को ये जबान दी थी कि चाहे कुछ भी हो जाये वो इन्‍सानियत और उनके आदर्शो के रास्‍तो से नही हटेगे। अपने नाना को दिये इसी वादे की वजह से इमाम हुसैन ने यजीद की खिलावत का मानने से साफ इन्‍कार कर दिया।

जब इमाम हुसैन किसी भी हाल में यजीद की बैयत करने की लिए तैयार नही हुये तो यजीद ने अपने चचाज़ाद भाई वलीद बिन अत्‍बा जो कि उस वक्‍त मदीने का गर्वरन भी था। उसको ये सेन्‍दश भेजा कि वे मदीने में रहकर उस वक्‍त मदीने में मौजूद इमाइ को बैयत के लिए किसी भी हाल में राजी करे और अगर इमाम हुसैन बैयत ना करे तो उनका सर काटकर उसके दरबार में लेकर आये।

इमाम हुसैन का पता चल गया कि यजीद उन्‍हे कत्‍ल करना चाहता है इसलिए उन्‍होने फैसला कर लिया कि वो मक्‍का छोड़ देगे। इसलिए इमाम हुसैन ने परिवार के साथ मक्‍का हिजरत कर गये।

कर्बला में धर्म और अधर्म के बीच हुआ टकराव

इमाम हुसैन ने जब अपना सफर शुरू किया तो उनके साथ उनकी 72 साथी ही थे। इन 72 साथियो मे से ज्‍यादातर उनके परिवार के सदस्‍य ही थे। जब अपने इन 72 साथिये के साथ मक्‍का छोड़कर निकले तो जुहसम नाम की एक जगह पर उनका सामना यजीद की फौज के एक दस्‍ते से हुआ। ये लगभग 1 हजार फौजिये की एक टुकड़ी थी जिसका सेनापति हुर्र बिन रियाही नाम का एक इन्‍सान था। जब हुर्र की सेना इमाम हुसैन के सामने आई तो रेगिस्‍तान में भटकने के कारण इस सेना का प्‍यास से बुरा हाल था। इमाम हुसैन से इस बात का ख्‍याल किये बगैर कि वो सेना उन्‍हे पकड़ने आई थी। इस प्‍यास से तड़पते सैनिको के दस्‍ते को पानी पिलाया। ये थी इमाम हुसैन की शख्सियत जिन्‍हे अपने दुश्‍मनो की प्‍यास का ख्‍याल था। फिलहाल बात को आगे बढ़ाते है। लगभग 22 दिनो तक रेगिस्‍तान में यात्रा करने के बाद इमाम हुसैन का काफिला 2 अक्‍टूबर 680 ईसवी यानि कि 2 मुहर्रम को इराक के उस जगह पर पहुचा जिसको कर्बला कहा जाता है। इमाम हुसैन ने कर्बला में पहुचकर पहले तो वहा जमीन का एक टुकड़ा खरीदा फिर वही पर अपने खेमे लगा लिये। बाद में यजीद की सेना भी कर्बला में पहचने लगी और देखते ही देखते उस सेना की तादात हजारो में पहुच गई। यजीद की सेना ने पहले तो इमाम हुसैन को वहा मौजूद अलकमा नहर के किनारे से उनके खेमे को हटाने के लिए उन्‍हे मजबूर किया फिर उनपर पानी बन्‍द करने अपने नापाक इरादो को जाहिर कर दिया।

कर्बला की लड़ा़ई क्‍यो हुई

इमाम कर्बला के मैदान में लड़ने के लिए नही आये थे। वो तो बस अपने परिवार और अपने साथियो को यजीद की हुकूमत से बाहर ले जाना चाहते थे ताकि अपनी जिन्‍दगी चैन से गुजार सके। लेकिन यजीद को ये मजूर नही था वो हर हाल में इमाम हुसैन की बैयत चाहता ताकि वो दुनिया को बता कि नबी के परिवार वालो का भी उसको समर्थन है। लेकिन इमाम हुसैन जो कि हक और सच्‍चाई के रास्‍ते पर थे किसी भी सूरत में यजीद को अपना समर्थन नही दे सकते है। अगर वो यह कर देते तो रोजे क्‍यामत तक यजीद की सत्‍ता पर हुसैनी मोहर लग जाती है और लोगो का ये लगता कि यजीद की सत्‍ता सही और इस्‍लामी आदर्शो वाली थी।

यजीद ने कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन को ये पैगाम पहुचा दिया कि वो या तो उसकी बैयत कर ले या कत्‍ल होने की तैयार हो जाये। अब इमाम हुसैन के सामने दो ही रास्‍ते थे एक रास्‍ता उन्‍हे ऐशोआराम और यजीद की हुकूमत मे एक अहम रूतबा दे देता और दूसरा रास्‍ता उन्‍हे जो कि हक और सच का रास्‍ता उस रास्‍ते पर सिर्फ मौत उनका इन्‍तेजार कर रही थी। इमाम हुसैन दूसरा रास्‍ता चुना क्‍योकि यही वो रास्‍ता जिसपर चलकर वो हमेशा हमेशा के लिए सच्‍चाई को जिन्‍दा रख सकते थे।

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जब इमाम हुसैन ने शमा बुझा दी

कर्बला के मैदान में 7 मोहर्रम को यजीद की सेना ने नदी के किनारो पर पहरा बिठा दिया। इमाम हुसैन और उनके पूरे कुनबे के ऊपर पानी बन्‍द कर दिया गया। कर्बला के तपते रेगिस्‍तान में इमाम हुसन के बच्‍चे प्‍यास से तड़पने लगे। इसके दो दिन बाद अचानक यज़ीदी सेनाओं ने इमाम के क़ाफिले पर हमला कर दिया।

लेकिन इमाम हुसैन ने यजीद की सेना से एक रात के लिए मोहलत मागते हुए कहा कि हमे बस एक रात का समय होता। हम मिलकर अपनी जिन्‍दगी में आखिरी बार खुदा की इबादत करना चाहते है। यजीद ने इमाम हुसैन को एक रात की इजाजत दे दी। उस रात इमाम हुसैन ने अपने सभी साथियो को एक साथ एक खेमे में बुलाकर उस खेमे में चल रही शमा को बुझाते हुए कहा कि कल सुबह होते ही यजीद की सेना हम पर हमला कर देगा। इस हमले में कोई नही बचेगा। हम सब मारे जायेगे। तुम सब को अपनी जिन्‍दगी जीने का पूरा अधिकार है। तुम सब ने मेरे साथ यहा आकर मेरे ऊपर बहुत बड़ा एहसान किया है। मै तुम इस मुहब्‍बत से बहुत खुश हू। लेकिन अब आगे का रास्‍ता बहुत ज्‍यादा मुश्किल जहा एक दर्द भरी मौत के सिवा और कुछ नही। तुम मे से कोई अगर जाना चाहता है तो वो जा सकता है। तुम लोगो ने मेरे प्रति वफादार रहने की जो कसम खाई थी। वो अब मैने उठा ली है। अगर मेरे दुश्‍मन मुझे पा लेगे तो वो तुम्‍हे तलाश नही करेगे। अगर तुम्‍हे लगता है कि मेरा चेहरा देखकर तुम्‍हारे कदम रूक सकते है तो इस वक्‍त अधेरा है। अगर कोई भी जाना चाहता है तो वो जा सकता है।

इस घटना पर टिप्पड़ी करते हुए मुंशी प्रेम चंद ने लिखा है कि अगर कोई सेनापति आज अपनी फ़ौज से यही बात कहे तो कोई सिपाही तो क्या बड़े बड़े कप्तान और जर्नल घर कि राह लेते हुए नज़र आयें। मगर कर्बला में हर तरह से मौका देने पर भी इमाम का साथ छोड़ने पर कोई राज़ी नहीं हुआ। शमा जलने के बाद उतने ही लोग इमा हुसैन के पास खड़े रहे जितने कि शमा बुझने से पहले खड़े हुए थे।

यजीद की फौज ने हैवानियत की सारी हदो का पार कर दिया

पुराने जमाने में जो जंगे हुआ करती थी उन जंगो का एक तरीका होता था। कुछ नियम होते है जो हर सेना को फालो करने होते थे। इन नियमो के अनुसार बच्‍चो और महिलाओ पर हमला नही किया जाता था। लेकिन कर्बला में तो यजीदी फौज के ऊपर जैसे कोई हैवान सवार था। कर्बला में हुई जंग में यजीद की सेना ने इन सभी नियम कानून को तोडकर क्रूरता और हैवानियत की ऐसी दास्‍ता लिखी जो आज भी इन्‍सानी दिमाग में एक अजीब सी सिहरन पैदा करती है।

imam husain

कर्बला से पहले ऐसा कभी नही हुआ कि किसी जंग 6 महीनो के छोटे से बच्‍चे को भी ना बक्‍शा गया हो। जी हॉ इस जंग में इमाम हसैन के 6 माह छोटे के प्‍यास के तड़पते हुए छोटे बच्‍चे अली असगर को भी शहीद कर दिया गया। जब इमाम हुसैन ने देखा कि उनका 6 माह का छोटा सा बच्‍चा प्‍यास की शिद्दत से तड़प रहा है तो वो अपने बच्‍चो यजीदी फौज के सामने लेकर गये और लगे कि तुम्‍हाई लड़े मुझसे है ना। इसमे इस छोटे से बच्‍चे का कोई कसूर नही है। ये मेरा 6 माह का छोटा सा बच्‍चा प्‍यास से तड़प रहा है कम से कम इस बच्‍चे को तो पानी पिला दो।

इमाम हुसैन की अपने छोटे से बच्‍चो को पानी पिलाने की इस अपील को थोड़ा असर तो यजीदी फौज पर हुआ है। भले ही दिल पर पत्‍थर रखकर आये लेकिन तो वो इन्‍सान ही। कुछ देर के लिए कर्बला के मैदान में एक हल्‍की सी खामोशी फैल गई और यजीदी फौज के कुछ सिपाही कुछ देर के लिए ही सही अपने ऊपर शर्मिदा होने लेगे। लेकिन यजीदी फौज का कमाडंर जिसका नाम हुरमुला था। उसने अपनी फौज के बीच फैले इस सन्‍नाटे को चीरते हुए तीन नोक का एक तीर इस बच्‍चे की तरफ छोड़ दिया जो कि 6 माह के छोटे से बच्‍चे अली असगर के प्‍यासे गले पर जाकर लगा। इमाम हुसैन का वो बच्‍चा वही शहीद हो गया।

इमाम हुसैन को किसने मारा था

कर्बला के मैदान में 10 मोहर्रम को यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के काफिले पर हमला करना शुरू कर दिया। लेकिन इस हमले से पहले हुर जिसने इमाम हुसैन के काफिले का रास्‍ता रोका था वो इमाम हुसैन को त्‍याग और बलिदान को देखते हुए यजीदी सेना को छोड़कर इमाम हुसैन के साथ शहीद होने उनके काफिले में शामिल हो गया था।

यजीदी फौज का हमला शुरू होकर और एक एक करके इमाम हुसैन के 72 सिपाहियो यजीदी फौज का सामना करते हुए शहीद होने लगे। इस जंग के इमाम हुसैन के 18 साल के जवान बेटे अली अकबर को बेरहमी से घोडो के नीचे पामाल करके शहीद कर दिया। इसके अलावा इमाम हुसैन के भाई हजरत अब्‍बास, हजरत काजिस और हजरत औनो मोहम्‍मद को भी यजीद की सेना ने बेरहमी से शहीद कर दिया।

यजीदी फौज ने एक एक करके इमाम हुसैन के सभी साथियो को कत्‍ल कर दिया और आखिर सिर्फ इमाम हुसैन और उनका एक बीमार बेटा हजरत जैनुल आबेदीन ही जिन्‍दा बचे था । आखिर तन्‍हा इमाम हुसैन जंंग के मैदान में आये और कुछ देर तक डटकर यजीदी फौज का मुकाबला किया लेकिन फिर जब वो बुरी तरह से चारो तरफ आ रहे तीरो से जख्‍मी हो गये तो यजीदी फौज का एक कमाडर शिम्र ने एक कुन्‍द धार के खंजर से उनके सर को उनकी शरीर से अलग करके उन्‍हे शहीद कर दिया।

इमाम हुसैन की शहादत के बाद का वाक्‍या

यजीद की फौज इमाम हुसैन की शहादत के बाद भी अपनी बेरहमी और क्रूरता से बाज नही आई। उसने इमाम हुसैन और उनके साथियो की लाशो पर घोड़े दौड़ा दिये। उनके सर को नैजे पर बुलन्‍द कर दिया है। यजीदी फौज की बेरहमी की इन्‍तेहा तब हो गई जब इमाम हुसैन की औरतो को कैदी बनाकर उन्‍हे शाम के बाजार में घुमाया गया। इमाम हुसैन की छोटी सी 4 साल बच्‍ची सकीना को भी यजीदी फौज ने नही बक्‍शा और उनके गले को भी रस्‍सी से बांंधा गया। सकीना को इमाम हुसैन के घराने की बाकी 18 औरतो के साथ एक ही रस्‍सी में बाधा गया। अब आप खुद ही समझ सकते है कि वो मंंजर देखने में कितना खतरनाक और भयावह होगा जब छोटी सी बच्‍ची सकीना के गले को रस्‍सी से बाधकर इस छोटी सी बच्‍ची को मीलो दूर पैदल चलाया होगा।

इमाम हुसैन के परिवार को क़ैद करके पहले तो कूफ़े की गली कूचों में घुमाया गया और बाद में उन्हें कूफ़े के सरदार इब्ने ज़ियाद के दरबार में पेश किया गया, जहाँ ख़ुशी की महफ़िलें सजाई गईं। इतना सब कुछ उसी मोहम्‍मद साहब के घराने के साथ हुआ जो तमाम मुसलमानो के लिए मसीहा बनकर आये। इमाम हुसैन और परिवार के साथ इस तरह की बर्बरियत करने वाले कोई नही बल्कि वही मुसलमान थे जिन्‍होने मोहम्‍मद साहब को अपना आखिरी नबी माना था। ना जाने कैसे ये मुसलमान थे जिन्‍हे मोहम्‍मद साहब के घराने को उजाड़ दिया।

इमाम हुसैन और हिन्‍दुस्‍तान

हिन्‍दुस्‍तान हमेशा से ही मोहब्‍बत और इंसानियत पसन्‍द इन्‍सानो की सरजमी रही है। ये एक ऐसा मुल्‍क जहा रहने वाले लोगो के ऊपर बाहरी मुल्‍को से आये कई बादशाहो ने हमले किये लेकिन इस मुल्‍क में रहने वाले सनातनी धर्म के लोगो ने कभी किसी पर हमला नही किया। इमाम हुसैन हिन्‍दुस्‍तान और यहा रहने वाले सनातनी धर्म के लोगो से काफी ज्‍यादा प्रभावित भी थे। जब उन्‍हे यजीद की सेना ने चारो तरफ से घेर लिया था तो उन्‍होने यजीदियो कहा कि वो यजीद के सम्राज्‍य में रहना ही नही चाहते और इराक से होते हिन्‍दुस्‍तान जाना चाहते है। इमाम हुसैन अक्‍सर कहा करते है कि हिन्‍दुस्‍तान की तरफ से मुझे हमेशा मोहब्‍बत के सन्‍देश आते है। हिन्‍दुस्‍तान में आना हजरम इमाम हुसैन का ख्‍वाब जो यजीदी फौज की वजह से पूरा नही हो पाया।

हुसैनी ब्राह्मण कौन होते है

ऐसा नही कि हिन्‍दुस्‍तान में इमाम हुसैन की कोई रिश्‍तेदारी नही थी। इस्‍लामिक इतिहासकारो के मुताबिक जब कर्बला के मैदान इमाम हुसैन को यजीद की फौज ने घेर लिया था तो उन्‍होने भारत के एक हिदु राजा के पास एक खत भेजकर उनसे मदद की अपील की थी। उस हिन्‍दु राजा इमाम हुसैन की मदद के लिए राहिब दत्‍त नाम के ब्रहामण को भेजा था। राहिब दत्‍त अपने 7 बेटो और तकरीबन 200 सिपाहियो के साथ जब कर्बला मैदान में पहुंचा तो इमाम हुसैन को शहीद किया जा चुका था। राहिब को कर्बला में देर से पहुचने का काफी अफसोस हुआ और उसने फैसला कर लिया वो इराक से तब तक वापस नही जायेगा जब यजीद और उसकी फौज से इमाम हुसैन के खून के एक एक कतरे का बदला ना ले ले। रिहाब दत्‍त ने ऐसा किया भी। जब इस पूरे हादसे के एक साल हजरत हजरत मुख्‍तार अपने एक सेना बनाकर इमाम हुसैन के खून का बदला लेने के निकले तो रिहाब दत्‍त और उसके 7 बेटे हजरत मुख्‍तार की सेना में शामिल है। रिहाब दत्‍त ने हजरत मुख्‍तार के साथ मिलकर इमाम हुसैन और उनके परिवार के कातिलो को ढूढ ढूढ कर मार दिया।

भारत के कुछ फेमस हुसैनी ब्राह्मण

इमाम हुसैन के कातिलो को खत्‍म रिहाब दत्‍त की छोटी सी सेना वापस आ गई और हिन्‍दुस्‍तान के अलग अलग इलाको में जाकर रहने। इन लोगो को इमाम हुसैन से इतनी मोहब्‍बत थी कि इन्‍होने खुद को हुसैनी ब्राह्मण कहना शुरू कर दिया। पंजाब में रहने वाले ज्‍यादा दत्‍त उपनाम के लोग हुसैनी ब्राहामण ही होते है। सुनील दत्‍त और उनका परिवार हिन्‍दुस्‍तान के फेमस हुसैनी ब्राह्मणो में से एक है। इसके अलावा रिटायर मेजर जनरल जीडी बक्‍शी भी भारत के फेमस हुसैनी ब्रहामण है।

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हजरत इमाम हुसैन कब और कहा पैदा हुये

हजरत पैगम्‍बर मोहम्‍मद साहब के नवासे और हजरत अली के बेटे हजरत इमाम हुसैन का जन्‍म मक्‍का में सन 626 ईसवी को हुआ था। अगर इस्‍लामिक तारीखो के हिसाब से देखा जाये तो इमाम हुसैन 3 शाबान सन 4 हिजरी में पैदा हुये थे।

इमाम हुसैन जब शहीद हुये तो उनकी उम्र कितनी थी

इमाम हुसैन को कर्बला के मैदान में जब शहीद किया गया तो उस वक्‍त उनकी उम्र 54 साल की थी

अली असगर इमाम हुसैन के कौन थे

अली असगर इमाम हुसैन के सबसे के सबसे छोटे बेटे थे जिन्‍हे कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया गया।

इमाम हुसैन कौन थे

इमाम हुसैन मोहम्‍मद साहब के नवासे और हजरत इमाम हुसैन के बेटे थे

इमाम हुसैन की शहादत के बाद यजीद से किसने बदला लिया

इमाम हुसैन की शहाद का बदला हजरत मुख्‍तार ने अपने कुछ साथियो की एक सेना बनाकर लिया।

इमाम हुसैन के कितने भाई है

इमाम हुसैन के तकरीबन 13 भाई थे लेकिन जिनमे से हजरत हसन उनके सगे भाई थे।

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2 thoughts on “Imam Husain, जिन्‍हे तीन दिन का भूखा प्‍यासा कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया गया”

  1. हजरत हसेन और हजरत हुसैन के साथ जंग में शामिल सिपाहियों को क्या कहेंगे?

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  2. Your article made me suddenly realize that I am writing a thesis on gate.io. After reading your article, I have a different way of thinking, thank you. However, I still have some doubts, can you help me? Thanks.

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