Kanwar yatra ki history kya hai | कांवड़ यात्रा का इतिहास (हिन्‍दी में)

Kanwar yatra ki history kya hai, सावन के महीने में भगवा वस्‍त्र पहनकर सड़को पर निकलने वाले भगवान भोलनाथ के भक्‍तो की कॉवड़ यात्रा को देखकर आपके दिमाग में ये सवाल जरूर आता होगा कि कांवड़ यात्रा (Kawar yatra 2022) का इतिहास क्‍या है। अगर आप कांवड़ यात्रा और उसके इतिहास के बारे में विस्‍तार से जानना चाहते है। तो ये लेख खास आपके लिए है। इस लेख में हम आपको कांवड़ यात्रा के बारे में विस्‍तार से बताने वाले हैा

Kanwar yatra ki history kya hai

कांवड़ शब्‍द का मतलब क्‍या है

Kanwar yatra ki history kya hai, ये जानने और समझने से पहले आपको ये जानना है और समझना बहुत जरूरी है कि कावंड़ का मतलब क्‍या होता है। वैसे तो कांवड़ शब्‍द के कई अर्थ है लेकिन वैसे तो कांवड़ शब्द के कई मायने हैं। लेकिन ज्‍यादातर पुराणों में इसे क यानि कि ब्रह्म के रूप में परिभाषित किया गया है। इसके अलावा कॉवड़ अपने मूल शब्‍द कावर से परिभाषित किया जाता है। कावर का अर्थ होता है कधां। यानि कि वो चीज जो कंंधेे पर ले जाई जा सके उसे कांवड़ कहते है। कांवड़ के इस अर्थ के अनुसार कांवडि़यो को कांवांरथी कहा जाता है।

कांवड़ यात्रा का इतिहास क्‍या है

सावन के महीने में देशभर में खास तौर पर उत्‍तर भारत में कांवड़ यात्रा काफी ज्‍यादा प्रचलित है। कांवड़ यात्रा का वर्णन हिन्‍दु धर्म की कई प्राचीन ग्रन्‍थो में अलग अलग तरीके से देखने को मिलता है। कांवड़ यात्रा को लेकर एक मान्‍यता ये है कि दुनिया के इतिहास का पहला कांवड़िया लंकापति रावण था। वेदो के अनुसार कांवड़ की परंपरा समुन्‍द्र मंथन के समय में ही पड़ गई थी। ऐसा माना जाता है कि जब संमुद्र मंथन के दौरान समुद्र में से विष निकला था तो पूरी दुनिया में तबाही आ गई थी। तब भगवान शिव ने संमुद्र मंथन के दौरान निकलने वाले विंंष को पी लिया था जिसकी वजह से उनका पूरा शरीर नीला पड़ गया था। भगवान शिव ने इस विष को अपने गले में रख लिया था। रावण भगवान शिव का परम भक्‍त था। उसने कई दिनो तक तप करने के बाद गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया था। रावण के इस अभिषेक की वजह से ही भगवान शिव के अंदर विष की वजह से आई नकारात्‍मक ऊर्जा दूर हुई थी।

कांवड़ यात्रा को लेकर एक मान्‍यता ये भी है कि इसकी शुरूआत राजा सगर के जमाने में हुई थी। राजा सगर के पुत्रो को तारने के लिए भागीरथ ने गंगा नदी को प्रथ्‍वी पर आने के लिए मनाने की कोशिश की थी। भागीरथ की वजह से गंगा पृथ्‍वी पर तो आ गई थी लेकिन उतना वेग इतना ज्‍यादा तेज थे कि अगर उस वेग से वो धरती पर आ जाती है तो धरती पर मौजूद मिट्टी और पहाड़ तब नष्‍ट हो जाते। इसी वजह से भगवान शिव ने गंंगा के वेग को शांत करने के लिए उन्‍हे अपनी जटाओ पर धारण कर लिया था। तभी से ऐसी मान्‍यता है कि भगवान शिव शिव को मनाने के लिए उनका गंगा जल से अभिषेक किया गया था।

इसके अलावा कांवड़ यात्रा को लेकर ये मान्‍यता भी काफी ज्‍यादा प्रचलित है कि कांवड़ यात्रा की शुरूआत भगवान परशुराम ने की थी जो भगवान शिव के बहुत बड़े भक्‍त थे। सबसे पहले परशुराम ने ही गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर पुरा महादेव के मंदिर पर चढ़ाया था। उस समय श्रावण मास ही चल रहा था। इसी के बाद से कांवड़ यात्रा शुरू हुई।

इसके अलावा भी कांवड़ यात्रा कैसे शुरू हुई इसको लेकर कई मान्‍यताये है। एक मान्‍यता के अनुसार कांवड़ यात्रा की शुरूआत त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने की थी। श्रवण कुमार ही सबसे पहले श्रावण मास में अपने माता-पिता की अन्तिम इच्‍छा पूरी करने के लिए उन्‍हे कांवड़ मे बिठाकर हरिद्वार ले गये थे। हरिद्वार पहुंचकर उन्‍होने अपने माता-पिता को गंगा से पानी से स्‍नान करवाया था। श्रवण कुमार अपने माता पिता को स्‍नान करवाने के बाद लौटते समय गंगाजल साथ लेकर आये थे। फिर उन्‍होने इस जल को अपने माता पिता के साथ शिवलिंग पर चढ़ाया था। तब से ही इस यात्रा की शुरूआत हुई थी।

कांवड़ यात्रा कितने प्रकार की होती है

इस लेख को यहा तक पढ़ने के बाद आपको ये तो पता चल गया होगा कि Kawar yatra ki history kya hai । अब हम आपको बताते है कि कांवड़ यात्रा कितने प्रकार की होती है।

कांवड़ यात्रा तीन प्रकार की होती है

1- सामान्य कांवड़ यात्रा– आमतौर पर लोग इसी तरह की कांवड़ यात्रा करते है। इस कांवड़ यात्रा के अनुसार कांवड यात्रा करने वाले सामान्य कांवड़िए अपनी यात्रा के दौरान जहां चाहे रूककर आराम कर सकते है। आपने सावन के महीने में देखा भी होगा कि इस महीने जहां से भी कांवड यात्रा निकलती है वहा कांवडियों के आराम करने के लिए पंडाल लगे हुए होते है। सामान्‍य कांवड़ यात्रा के दौरान तब कांवडि़यो थक जाते है तो वो इन पंडालो में रूककर आराम करते है। कुछ देर आराम करने के बाद जब उनकी थकान कुछ कम हो जाती है तो वो दोबारा कांवड़ यात्रा शुरू कर देते है।

2. डाक कांवड़ यात्रा– ये कांवड़ यात्रा सामान्‍यकांवड़ यात्रा से कुछ अलग तरह की होती है। डाक कांवड़ यात्रा के दौरान भोले के भक्‍तो को अपनी कांवड़ यात्रा के शुरूआत से शिव के जलाभिषेक तक लगातार चलते रहने होता है। डाक कांवड़ यात्रा करने वाले के लिए मन्दिरो में अलग तरह के इन्‍तेजाम किये जाते है। जब ये कांवड यात्री निकलते है तो हर कोई उनके लिए रास्‍ता छोड़ते हुए चलता है। इस तरह की कांवड़ यात्रा में शिवलिंग तक बिना रूके हुए चलते रहने होता है।

3. खड़ी कांवड़ यात्रा – इस तरह की कांवड़ यात्रा करना काफी कठिन होता है। इस कांवड़ यात्रा में भी कांवड़ को लगातार अपने कंधों में थामे रहना होता है। खड़ी कांवड़ यात्रा कई लोग मिलकर करते है और जब एक थक जाता है तो कोई दूसरा कांवड़ को अपने कंधो में रख लेता है।

4. दांडी कांवड़ यात्रा- ये सबसे कठिन कांवड़ यात्रा होती है। इस कांवड यात्रा के दौरान भक्‍तो को गंगा नदी के तट से लेकर शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करनी होती है। इस कांवड़ यात्रा के दौरान अपनी यात्रा को अपनी शरीर की लंबाई से लेट कर नापते हुए पूरी करना होता है। ये काफी मुश्किल कांवड़ यात्रा होती है और इसे पूरी होने में कभी कभी 1 महीना तक लग जाता है। बहुत मुश्किल होने की वजह से इस तरह की कांवड़ यात्रा बहुत कम लोग ही करते है।

कांवड यात्रा के नियम क्‍या है

कांवड़ यात्रा के दौरान कांवडि़यो को इन नियमो का पालन करना होता है

  • कांवड यात्रा के निकलने वाले लोग एक दूसरे को भोले कहकर बुलाते है
  • कांवड़ यात्रा के दौरान भक्‍तो का सादा भोजन करना होता है। इस दौरान उन्‍हे मांसाहार, शराब, सेक्‍स इन सब से दूरी बनाकर रखनी होती है।
  • कांवड यात्रा के निकलने वाले भक्‍त अपने कांवड़ को जमीन पर नही रख सकते है। ऐसा करने पर उनका कांवड़ यात्रा टूट जाती है और उन्‍हे दोबारा से अपनी कांवड़ यात्रा की शुरूआत करनी होती है।
  • अगर कोई कांवड़ यात्रा के दौरान विश्राम करना होता है तो उन्‍हे अपनी कांवड़ को स्‍टैंड या पेड़ पर लटकाना होता है।
  • जिस मंदिर में अभिषेक करने का संकल्प लिया जाता है, वहां तक नंगे पांव ही चलकर जाना होता है।
  • स्नान के बाद ही कांवड़ को छुआ जाता है।
  • यात्रा के दौरान कंघा, तेल, साबुन इत्यादि का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
  • चारपाई पर न बैठना जैसे नियमों का भी पालन करना होता है।

कब-कब पड़ रहे हैं विशेष सोमवार

सावन महीने की शुरूआत 14 जुलाई से हो गई है. 14 जुलाई से लेकर 27 जुलाई तक भगवान शिव को मनाने का बेहद पवित्र समय चल रहा है. 27 जुलाई को देश के तमाम शिवालयों पर भगवान शिव का जलाभिषेक होगा. इस दौरान भगवान को मनाने जाने के लिए भक्त अपने अपने तरीके से भगवान शिव की आराधना कर रहे हैं. सावन महीने के सोमवार में की गई पूजा का विशेष महत्व माना जाता है. इस बार सावन का पहला सोमवार 18 जुलाई को पड़ रहा है. दूसरा सोमवार 25 जुलाई को होगा. जबकि तीसरा सोमवार 1 अगस्त को होगा और चौथा सोमवार 8 अगस्त को होगा. सावन महीने की अंतिम तिथि 11 अगस्त रक्षाबंधन को होती है रक्षाबंधन के दिन सावन महीना समाप्त हो जाता है.
इस लेख को पूरा पढ़ने के बाद आपको अब पता चल गया होगा कि Kanwar yatra ki history kya hai। हमारे इस लेख को पूरा पढ़ने के लिए आपको बहुत बहुत धन्‍यवाद

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1 thought on “Kanwar yatra ki history kya hai | कांवड़ यात्रा का इतिहास (हिन्‍दी में)”

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