Swami vivekananda story | स्‍वामी विवेकानन्‍द की कहानी

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Swami vivekananda story, आज हम आपको स्‍वामी विवेकानन्‍द की कहानी सुनाने वाले है।   

भारत योगियों और महापुरूषो की धरती रही है। इस देश में कई ऐसे विचारक और महापुरूष पैदा हुये जिन्‍होने अपने ज्ञान और सकल्‍प से इस दुनिया में रहने वाले इन्‍सानों को जीवन को सम्‍पूर्ण रूप से बदल कर रख दिया। आदि शंकराचार्य से लेकर महात्‍मा गांधी जैसे कई महापुरूष इस देश की मिट्टी से निकले जिनके विचार आज भी सम्‍पूर्ण दुनिया में मानवता और भाईचारे की भावना को जनमानस तक पहुंचाना का काम रहे है।

आज हम भारत के उन महापुरूष की बात करने वाले है जो उन युवाओ का प्रेरणास्‍त्रोत है जो अपनी जिन्‍दगी में कोई बडा मुकाम हासिल करना चाहते है। जो आज के लाखों युवाओं का आइडल है। जिसके कोट आज भी इन्‍टरेनट पर वाइरल होते रहते है। जिन्‍होने साइंस से लेकर साइकोलॉजी, फिलासाफी, अध्‍यात्‍म और ना जाने कितने विषयों में महारत हासिल की। अब तो आप समझ ही गयें होगे हम किस महापुरूष की बात कर रहे है।

जी हा हम बात कर रहे है स्‍वामी विवेकानन्‍द की। भारत की धरती पर पैदा होने वाले स्‍वामी विवेकानन्‍द एक ऐसे युगपुरूष है जिनको आज भी दुनियाभर के लोग बहुत आर्दश और सम्‍मान के साथ याद करते है। स्‍वामी विवेकानन्‍द मात्र 40 साल तक इस दुनिया में रहे लेकिन इन 40 सालों में उन्‍होने कुछ ऐसा कर दिखाया जिसे करने के 400 सालों की जिन्‍दगी भी कम पड़ जाती है। कैसी थी स्‍वामी विवेकानन्‍द की जिन्‍दगी और उनकी जिन्‍दगी से आज की पीढी किस तरह से प्रेरणा ले सकती है। आइये इस पर चर्चा करते है।

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स्‍वामी विवेकानन्‍द का जीवन परिचय

स्‍वामी विवेकानन्‍द का जन्‍म 12 जनवरी 1963 में कोलकाता के एक गाव में हुआ था। इनका असली नाम नरेन्‍द्र था। नरेन्‍द्र के पिता विश्‍वनाथ दत्‍त पेशे से वकील थे। इनकी माता का नाम भुवनेश्‍वरी था जो एक धार्मिक घरेलू महिला थी। नरेन्‍द्र को बचपन से ही पढने का काफी शौक था। अपने जिन्‍दगी के शुरूआती दिनों में ही हिन्‍दू धर्म को लेकर लिखी गई काफी सारी किताबे पढ ली थी। नरेन्‍द्र के परिवार में भी पढाई लिखाई का काफी अच्‍छा माहौल थी। इनके दादा भी उस जमाने के बडे विद्ववानों में से एक थे। जब नरेन्‍द्र को वेदो का ज्ञान दिया करता थे। नरेन्‍द्र के अन्‍दर ज्ञान हासिल करने की ललक उनके दादा ने ही पैदा की।

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नरेन्‍द्र जब 8 साल के थे तो उनके पिता ने उनका दाखिला उसे वक्‍त के सामाज सुधारक ईश्‍वर चन्‍द्र विध्‍यासागर के स्‍कूल में करा दिया। यहा आकर उन्‍हे ईश्‍वर चन्‍द्र विध्‍यासागर का सानिध्‍य मिला जिसको उनकी प्रज्ञा को और भी ज्‍यादा ज्‍वलित कर दिया। वो अपने कोर्स की किताबों पढ लिया करते थे। नरेन्‍द्र पढाई के अलावा खेलकूद और अन्‍य प्रतियोगिताओं में भी काफी आगे रहते थे। उन्‍हे फुटबॉल खेलना काफी पसन्‍द था।

अपनी शुरूआत पढाई पूरी करने के बाद नरेन्‍द्र आगे की पढाई के लिए 1879 में प्रसीडेन्‍सी कॉलेज चले गये। यहां से इन्‍होने अपने स्‍नातक की पढाई पूरी की। स्‍नातक की पढाई करने के बाद उन्‍होने कलकत्‍ता के स्‍काटिश चर्च में दाखिला ले लिया। यहा उन्‍होने ईसाई धर्म का भी जमकर अध्‍ययन किया।

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नरेन्‍द्र को अध्‍यात्‍म में काफी ज्‍यादा रूचि थी। हिन्‍दू धर्म की अधिकतर किताबों को उन्‍होने बचपन में ही पढ लिया था। अपने धर्म के अलावा उन्‍हे दूसरे धर्मो के बारे में भी पढने का काफी शौक था। अपने इसी शौक के चलते उन्‍होने ईसाई, इस्‍लाम, बौद्ध और सिख धर्म के बारे में भी अच्‍छी खासी जानकारी प्राप्‍त कर ली थी।

नरेन्‍द्र को ईश्‍वर में काफी ज्‍यादा रूचि थी। वो अक्‍सर जब भी कभी किसी बडे अध्‍यामिक पुरूष से मिलते तो उनसे एक सवाल जरूर पूछा करते थे कि क्‍या उन्‍होने ईश्‍वर को देखा है। उनके इस सवाल का जवाब किसी के पास नही था। अपने इसी सवाल की खोज में वो अक्‍सर किताबों में डूबे रहते थे।

जब रामकृष्‍ण परमहंस से मिले स्‍वामी विवेकानन्‍द

अपनी अध्‍यामिक यात्रा के दौरान स्‍वामी विवेकानन्‍द की मुलाकात दक्षिणेश्‍वर के रामकृष्‍ण परमहंस से हुई। रामकृष्‍ण परमहंस काली माता के पुजारी थे। वो अपने जीवन के अधिकतर समय काली माता की पूजा किया करते थे। जब स्‍वामी विवेकानन्‍द की मुलाकात रामकृष्‍ण परमहंस से हुई तो उन्‍होने उनसे भी वही सवाल पूछा।

क्‍या आपने ईश्‍वर का साक्षात्‍कार किया है ?

इस सवाल के जवाब में रामकृष्‍ण परमहंस ने कहा कि हॉ जिस तरह मै तुम्‍हे देख रहा हू बिल्‍कुल इसी तरह मैने भगवान को भी देखा है। स्‍वामी विवेकानन्‍द परमहंस के इस सवाल से काफी ज्‍यादा प्रभावित हुए। बाद में वो इन्‍ही रामकृष्‍ण परमहंस के शिष्‍य बन गये और इनके साथ इन्‍ही के मठ में रहने लगे।

जब रामकृष्‍ण की मृत्‍यू हुई तो स्‍वामी विवेकानन्‍द के ऊपर उनके मठ की सारी जिम्‍मेदारी आ गई। उन्‍होने इसको पूरी जिम्‍मेदारी के निभाया। 1881 में उन्‍होने पूरे भारत में अपनी अध्‍यामिक यात्रााये शुरू कर दी। स्‍वामी विवेकानन्‍द की जिन्‍दगी में सबसे अहम मोड तब आया जब 1883 में उन्‍हे अमेरिका के शिकांगों में आयोजित विश्‍व धर्म सम्‍मेलन में हिन्‍दू धर्म पर व्‍याख्‍यान करने के लिए बुलाया गया। स्‍वामी विवेकानन्‍द इससे पहले अपने देश के बाहर कही नही गये थे। उन्‍होने समझ नही आ रहा था कि वो क्‍या करे। बहुत सोच विचार के बाद उन्‍होने तय किया कि अगर ईश्‍वर ने उन्‍हे ये मौका दिया है तो वो जरूर इस मौके का फायदा उठाते अमेरिका जायेगे।

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वो भाषण जिसने स्‍वामी विवेकानन्‍द को भारतीयों का हीरो बना दिया

जब वो शिकागों में आयोजित विश्‍व धर्म सम्‍मेलन में पहुंचे तो वहा लोगो ने उनके पहनावे को लेकर काफी मजाक बनाई। इस सम्‍मेलन में स्‍वामी भगवा रग के कपडे और एक पगडी पहन कर गये थे। विश्‍व सम्‍मेलन होने की वजह से इस सम्‍मेलन में दुनिया भर के अध्‍यात्‍म गुरू और महत्‍वपूर्ण लोग शामिल थे। इस सम्‍मेलन में सब कुछ आलीशान था। स्‍वामी इस सम्‍मेलन की भव्‍यता देखकर कुछ देर के लिए थोडे से नर्वस भी हुये।

सम्‍मेलन की शुरूआत हुई। स्‍टेज पर आने वाला हर वक्‍ता बहुत गौरव और अंहकार के साथ अपनी अपनी सस्‍कृति और धर्म की शान में कसीदे पढ़ने लगा। स्‍वामी ये सब देख रहे थे। वो एक तो पहले से ही काफी नर्वस थे। ये सब देखकर तो उनके नर्वस होने का लेवल काफी ज्‍यादा बढ गया। फिलहाल आखिकार वो समय आ ही गया जब स्‍वामी विवेकानन्‍द को स्‍टेज पर आकर अपनी बात रखने का मौका मिलना था। स्‍वामी ने स्‍टेज पर आते ही कहा।

अमेरिका के बहनो और भाइयों।

स्‍वामी विवेकानन्‍द इस सम्‍मेलन में आने वाले पहले ऐसे इन्‍सान थे जिन्‍होने अपने भाषण की शुरूआत इन शब्‍दों के साथ की थी। जैसे ही उन्‍होने ये बात बोली पूरा वातावरण तालियों की आवाज से गूज उठा। स्‍वामी ने शिकागों के अपने इस भाषण से अमेरिकियों का दिल जीत लिया। जल्‍द ही उनकी ख्‍याती पूरी विश्‍व में फैल गई। स्‍वामी दुनियाभर में फेमस हो गये थे तो इससे उनका अपना देश कब अछूता रह सकता है।

भारत में स्‍वामी विवेकानन्‍द के शिकागों में दिये भाषण की खबर आग की तरह फैल गई। स्‍वामी विवेकानन्‍द के रूप में भारत वासियों को अपना ऐसे इन्‍टरनैशनल हीरों मिल गया था जो दुनिया से उसी की भाषा में बात करके भारत की सस्‍कृति को दुनिया भर में पहुंचा रहा था।

स्‍वामी विवेकानन्‍द की मौत कब हुई

स्‍वामी विवेकानन्‍द अपनी जिन्‍दगी के अपनी दिनों में कल हावडा के बैलूर मठ में जाकर रहने लगे थे। उन्‍हे अस्‍थमा की बीमारी हो गई। बीमार होने के वाबजूद वो काफी ज्‍यादा काम किया करते थे। अस्‍थमा की बीमारी के चलते ही वो 5 जुलाई 1902 में  परलोक  सिधार गये।

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